दुष्यंत कुमार की कुछ बेहतरीन गजलें – Dushyant Kumar Ghazals

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूं : दुष्यंत कुमार 

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूं,
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूं। 

एक जंगल है तेरी आंखों में,
मैं जहाँ राह भूल जाता हूं। 

तू किसी रेल-सी गुज़रती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूं।

हर तरफ़ ऐतराज़ होता है,
मैं अगर रौशनी में आता हूं। 

एक बाज़ू उखड़ गया जबसे,
और ज़्यादा वज़न उठाता हूं। 

मैं तुझे भूलने की कोशिश में,
आज कितने क़रीब पाता हूं। 

कौन ये फ़ासला निभाएगा,
मैं फ़रिश्ता हूं सच बताता हूं। 

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है : दुष्यंत कुमार

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है। 

एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी
यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।

निर्वसन मैदान में लेटी हुई है जो नदी
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।

अपाहिज व्यथा : दुष्यंत कुमार

अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ,
तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ। 

ये दरवाजा खोलो तो खुलता नहीं है,
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ। 

अँधेरे में कुछ जिंदगी होम कर दी,
उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ।

वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं,
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ।

तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,
तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ।

मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,
तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ।

समालोचको की दुआ है कि मैं फिर,
सही शाम से आचमन कर रहा हूँ।

हो गई है पीर पर्वत-सी : दुष्यंत कुमार

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए। 

बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं : दुष्यंत कुमार

बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं,
और नदियों के किनारे घर बने हैं। 

चीड़-वन में आँधियों की बात मत कर,
इन दरख्तों के बहुत नाजुक तने हैं। 

इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं हैं,
जिस तरह टूटे हुए ये आइने हैं। 

आपके कालीन देखेंगे किसी दिन,
इस समय तो पाँव कीचड़ में सने हैं। 

जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में,
हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं। 

अब तड़पती-सी गजल कोई सुनाए,
हमसफर ऊँघे हुए हैं, अनमने हैं। 

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है : दुष्यंत कुमार

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है। 

सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है। 

इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है। 

पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है।

रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है। 

हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।

दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है।