भारत विविधताओं का देश है। भारत के अलग-अलग प्रान्तों व क्षेत्रों में अलग-अलग पर्व-त्यौहार मनाये जाते हैं। कई बार यह भेद करना कठिन हो जाता है कि ये त्यौहार आदि क्या वास्तव में ही अलग हैं या एक ही उत्सव के भिन्न-भिन्न संस्करण।
ऐसा ही विविधताओं से भरा एक पर्व है दिवाली। कहीं लक्ष्मी-गणेश पूजन, तो कहीं थाला दिवाली के रूप में प्रसिद्ध दिवाली का एक पहाड़ी संस्करण भी है, जोकि उत्तराखंड में बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसका पर्व का नाम है ‘इगास बग्वाल’।
इस साल से दिल्ली में भी उत्तराखंड की रौनक देखने को मिलेगी। दिल्ली के बुराड़ी क्षेत्र में भैलों की जगमग रोशनी में अपने उत्तराखंड का यह त्यौहार मनाया जाएगा।
दरअसल, 23 नवम्बर, 2023 को दिल्ली में पहली बार इगास बग्वाल त्यौहार मनाया जा रहा है। इस कार्यक्रम के लिए कला दर्पण स्टूडियो ने पहल की है। यह पहला मौका है जब दिल्ली में इगास बग्वाल त्यौहार मनाया जा रहा है।
कला दर्पण स्टूडियो द्वारा उत्तराखंडी रंगमंच (Theatre), नृत्य (Dance), गायन (Singing), ललित कला एवं फिल्म निर्माण (Fine Arts & Film Production) के लिए बनाया गया हैl यह Group अभी तक 4 Theatre Show, 2 Dance Show कर चुका है। इस ग्रुप के माध्यम उत्तराखंड के दूर-दराज के इलाकों से आए युवक-युवतियां अपने हुनर को निखार रहे हैं। ये युवा अपने प्रदेश से दूर रह कर उत्तराखंडी कल्चर को संरक्षित करने में अपना पूर्ण योगदान दे रहे हैं।
इस ग्रुप में आर्यन कठैत पुत्र श्री योगम्बर सिंह कठैत, आरुषि कठैत सुपुत्री श्री योगम्बर कठैत, रिया बिष्ट सुपुत्री श्री सुरेंद्र सिंह, निशांत रौथाण सुपुत्र श्री जयसिंह रौथाण, अंकुश पटवाल सुपुत्र श्री प्रकाश पटवाल शामिल हैं। इसके अतिरिक्त हरिगोविंद कठैत, अलोक, दलबीर राणा, सुरेंदर नेगी, अर्जुन सिंह रौथाण, गोकुल सिंह रौथाण की भी भूमिका उल्लेखनीय है।
उत्तराखंड के गढ़वाल में सदियों से दिवाली को बग्वाल के रूप में मनाया जाता है। कुमाऊं के क्षेत्र में इसे बूढ़ी दीपावली कहा जाता है। इस पर्व के दिन सुबह मीठे पकवान बनाए जाते हैं। रात में स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा अर्चना के बाद भैला जलाकर उसे घुमाया जाता है और ढोल नगाड़ों के साथ आग के चारों ओर लोक नृत्य किया जाता है।
इगास का शाब्दिक अर्थ है इग्यारह। इगास पर्व दीपावली के 11वें दिन यानी एकादशी को मनाया जाता है। इगास पर्व भैलो खेलकर मनाया जाता है। तिल, भंगजीरे, हिसर और चीड़ की सूखी लकड़ी के छोटे-छोटे गठ्ठर बनाकर इसे विशेष प्रकार की रस्सी से बांधकर भैलो तैयार किया जाता है। बग्वाल के दिन पूजा अर्चना के बाद आस-पास के लोग एक जगह एकत्रित होकर भैलो खेलते हैं। भैलो खेल के अंतर्गत, भैलो में आग लगाकर करतब दिखाए जाते हैं साथ-साथ पारंपरिक लोकनृत्य चांछड़ी और झुमेलों के साथ भैलो रे भैलो, काखड़ी को रैलू, उज्यालू आलो अंधेरो भगलू आदि लोकगीतों का आनंद लिया जाता है।
एक मान्यता के अनुसार, मान्यता है कि जब भगवान राम 14 वर्ष बाद लंका विजय कर अयोध्या पहुंचे तो लोगों ने दिए जलाकर उनका स्वागत किया और उसे दीपावली के त्योहार के रूप में मनाया। कहा जाता है कि गढ़वाल क्षेत्र में लोगों को इसकी जानकारी 11 दिन बाद मिली। इसलिए यहां पर दिवाली के 11 दिन बाद यह इगास मनाई जाती है।
इसके अतिरिक्त इसे इस पंक्ति से भी समझा जा सकता है - “बारह ए गैनी बग्वाली मेरो माधो नि आई, सोलह ऐनी श्राद्ध मेरो माधो नी आई।” मतलब बारह बग्वाल चली गई, लेकिन माधो सिंह लौटकर नहीं आए। सोलह श्राद्ध चले गए, लेकिन माधो सिंह का अब तक कोई पता नहीं है। पूरी सेना का कहीं कुछ पता नहीं चल पाया। इगास की ये कहानी जुड़ती है ‘माधो सिंह भंडारी’ या 'माधो सिंह मलेथा' से।
माधो सिंह भंडारी, जिन्हें 'माधो सिंह मलेथा' भी कहा जाता है, वस्तुतः गढ़वाल के महान योद्धा, सेनापति और कुशल इंजीनियर थे जो आज से लगभग 400 साल पहले पहाड़ का सीना चीरकर नदी का पानी अपने गांव लेकर आये थे।
गढ़वाल के वीर भड़ माधो सिंह भंडारी टिहरी के राजा महिपति शाह की सेना के सेनापति थे। लगभग 400 साल पहले राजा ने माधो सिंह को एक सेना के साथ तिब्बत से लड़ने के लिए भेजा था। माधो सिंह भंडारी कम उम्र में ही श्रीनगर के शाही दरबार की सेना में भर्ती हो गये और अपनी वीरता व युद्ध कौशल से सेनाध्यक्ष के पद पर पहुंच गये। वह राजा महिपात शाह (1629-1646) की सेना के सेनाध्यक्ष थे। जहां उन्होने कई नई क्षेत्रों में राजा के राज्य को बढ़ाया और कई किले बनवाने में मदद की।
इसी बीच बगवाल (दिवाली) का त्योहार भी था, लेकिन इस त्योहार तक कोई भी सिपाही वापस नहीं लौट सका। सभी ने सोचा कि माधो सिंह और उनके सैनिक युद्ध में शहीद हो गए, इसलिए किसी ने दिवाली (बगवाल) नहीं मनाई। लेकिन दीवाली के 11वें दिन माधो सिंह भंडारी अपने सैनिकों के साथ तिब्बत से दावापाघाट युद्ध जीतने के लिए लौटे। इसी खुशी में दिवाली मनाई गई, जोकि इगास के नाम से प्रसिद्ध हुई।
एक और कहानी महाभारत काल से भी जुड़ी बताई जाती है। दंत कथाओं और लोक परम्पराओं के अनुसार महाभारत काल में भीम को किसी राक्षस ने युद्ध की चेतावनी थी। कई दिनों तक युद्ध करने के बाद जब भीम वापस लौटे तो पांडवों ने दीपोत्सव मनाया था। कहा जाता है कि इस को भी इगास के रूप में ही मनाया जाता है।