आचार्य रामचन्द्र शुक्ल – Acharya Ramchandra Shukla

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल (Acharya Ramchandra Shukla) हिन्दी आलोचक, कहानीकार, निबन्धकार, साहित्येतिहासकार, कोशकार, अनुवादक, कथाकार और कवि थे। हिन्दी निबन्ध के क्षेत्र में भी शुक्ल जी का महत्त्वपूर्ण योगदान है। भाव, मनोविकार सम्बन्धित मनोविश्लेषणात्मक निबन्ध उनके प्रमुख पक्ष रहें हैं। शुक्ल जी ने साहित्य के इतिहास लेखन में रचनाकार के जीवन और पाठ को समान महत्त्व दिया। 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जीवनी - Acharya Ramchandra Shukla Biography

नाम आचार्य रामचंद्र शुक्ल 
जन्म 4 अक्टूबर 1882
जन्म स्थान गांव अगोना, जिला बस्ती, उत्तर प्रदेश 
पिता श्री चंद्रबली शुक्ल 
माता श्रीमती विभाषी
पेशा लेखक, इतिहासकार  
महत्त्वपूर्ण कार्य ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ 
पदस्थ विभागाध्यक्ष, (काशी हिंदू विश्वविद्यालय)
अन्य निबंध  चिंतामणि भाग 1 एवं 2, कविता क्या है? 
मृत्यु 2 फरवरी 1941, वाराणसी 

प्रारंभिक जीवन - Early life

बचपन से ही पढाई के प्रति समर्पित आचार्य शुक्ल विद्रोही स्वर के थे। अपने पिता के हरसंभव प्रयास के बावजूद उन्होंने साहित्य के प्रति अपनी रूचि को कम नहीं होने दिया दरअसल इनके पिता कानूनगो होने के नाते एक शहर से दूसरे शहर आने जाने का क्रम लगा रहता था। इनके पिता चाहते थे की ये दफ्तरी कामकाज सीख लें। जिससे उन्हें नायब तहसीलदार का पद दिलाया जा सके। लेकिन आचार्य शुक्ल अपने मन को पूर्णतः साहित्य के प्रति समर्पित कर चुके थे। 

पत्र पत्रिकाओं के संपादक के रुप में - As editor of newspapers and magazines

आचार्य रामचंद्र शुक्ल वर्ष 1903 से 1908 तक 'आंनद कादम्बनी' पत्रिका के सहायक सम्पादक रहे।  1904 से 1908 तक लंदन मिशन स्कूल में ड्राइंग के अध्यापक रहे। इसी समय से उनके लेख पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे और धीरे-धीरे उनकी विद्वता का प्रकाश चारों ओर फैल गया। उनकी योग्यता से प्रभावित होकर 1908 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने उन्हें हिन्दी शब्दसागर के सहायक संपादक का कार्य-भार सौंपा जिसे उन्होंने सफलतापूर्वक पूरा किया। श्यामसुन्दर दास के शब्दों में शब्दसागर की उपयोगिता और सर्वांगपूर्णता का अधिकांश श्रेय रामचंद्र शुक्ल को प्राप्त है। वे नागरी प्रचारिणी पत्रिका के भी संपादक रहे।  

महत्त्वपूर्ण आलोचक के रूप में शुक्ल जी - Shukla ji as an important critic

रामचंद्र शुक्ल हिंदी के अत्यंत समादृत लेखक और आलोचक हैं। डॉ. रामविलास शर्मा उन्हें आलोचना के क्षेत्र में उतने ही महत्त्व से रखते हैं, जो महत्त्व प्रेमचंद का उपन्यास में है और निराला का कविता में। उन्होंने हिंदी में व्यवस्थित साहित्य-सिद्धांतों की नींव रखी, जिनके आधार पर ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ लिखा और हिंदी साहित्य की व्यावहारिक आलोचना की। उन्होंने हिंदी-साहित्य के अध्ययन-अध्यापन के लिए व्यवस्थित रूप से पाठ्यक्रम का निर्माण किया और पाठ्यक्रम उपलब्ध करवाया। इसके साथ ही उन्होंने निबंध लेखन और अनुवाद का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उनके पत्र और अख़बारों को भेजी गई टिप्पणियाँ भी प्रकाशित हैं। उनका समस्त रचना-कर्म एक-दूसरे का पूरक बना रहा। ‘चिंतामणि’ पर उन्हें अत्यंत प्रतिष्ठित ‘मंगला प्रसाद पारितोषिक’ प्रदान किया गया।

‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ लिखकर हुए प्रसिद्ध - Became famous by writing ‘History of Hindi Literature’  

अपने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में स्वयं रामचन्द्र शुक्ल जी ने कहा है, “इस तृतीय उत्थान (सन 1918 ई. से) में समालोचना का आदर्श भी बदला। गुण-दोष के कथन के आगे बढ़कर कवियों की विशेषताओं और अन्त:प्रवृत्ति की छानबीन की ओर भी ध्यान दिया गया” कहना न होगा कि कवियों की विशेषताओं एवं उनकी अन्त:प्रवृत्ति की छानबीन की ओर ध्यान, सबसे पहले शुक्ल जी ने दिया है। इस प्रकार हिन्दी साहित्य को अपेक्षित धरातल देने में सबसे बड़ा हाथ उनका ही रहा है। समीक्षक के रूप में शुक्ल जी पर विचार करते ही एक तथ्य सामने आ जाता है, कि उन्होंने अपनी पद्धति को युगानुकूल नवीन बनाया था।

कबीर को अपनी सहानुभूति से रखा वांछित - Kept Kabir wanted with his sympathy 

आचार्य शुक्ल ने अपनी त्रिवेणी में सूर, तुलसी, और जायसी को स्थान देकर यह स्पष्ट कर दिया कि कबीर को स्थान देना उतना प्रासंगिक नहीं है। सूर, तुलसी और जायसी को केंद्र में रखते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की कबीर सम्बन्धी आलोचना में कबीर एवं निर्गुण सन्तों के प्रति नकारात्मक दृष्टि स्पष्ट झलकती है। तुलसी की रचनाओं के आधार पर आलोचकीय प्रतिमान विकसित करने वाले आचार्य शुक्ल ने भक्ति के तीन अंग – कर्म, धर्म और ज्ञान माने हैं । उनके मत से रामकाव्य इसीलिए सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि उसमें तीनों अंगों का पूर्ण विकास मिलता है। इस प्रतिमान पर उन्हें कबीर आदि सन्तों का निर्गुण-काव्य सीमित महत्त्व का लगा। उन्होंने उसे कर्म से दूर कर देने वाला माना। उन्होंने लिखा कि – “कबीर तथा अन्य निर्गुणपन्थी सन्तों के द्वारा अन्तस्साधना में रागात्मिका ‘भक्ति’ और ‘ज्ञान’ का योग तो हुआ, पर ‘कर्म’ की दशा वही रही, जो नाथपन्थियों के यहाँ थी। इन सन्तों के ईश्‍वर ज्ञानस्वरूप और प्रेमस्वरूप ही रहे, धर्मस्वरूप न हो पाए।” (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, कालविभाग, पृ. 42)

अन्य महत्त्वपूर्ण रचनाएँ - Other important works

आलोचनात्मक ग्रंथ

निबन्धात्मक ग्रन्थ

सम्पादित कृतियाँ

मृत्यु -  Death

2 फरवरी 1941 को हृदय की गति रुक जाने से शुक्ल जी का देहांत हो गया।