1970 के दशक में पश्चिम बंगाल के रंगमंच पर एक ऐसी शांत क्रांति हुई, जिसने स्थापित नाट्य परंपराओं को चुनौती दी – ‘बादल सरकार’। ‘वैकल्पिक सरकार’ के रूप में उभरी यह अवधारणा, रंगमंच को मनोरंजन से कहीं बढ़कर, सामाजिक बदलाव और जनचेतना का एक शक्तिशाली हथियार बनाने का क्रांतिकारी आह्वान थी। इसने न केवल नाटकों की विषयवस्तु और प्रस्तुति को नया रूप दिया, बल्कि दर्शक और कलाकार के बीच के पारंपरिक रिश्ते को भी हमेशा के लिए बदल दिया। यह भारतीय रंगमंच का एक ऐसा मौन विद्रोह था, जिसने संवाद की भाषा ही बदल दी।
बादल सरकार जीवनी – Badal Sarkar Biography
जन्म | 15 जुलाई, 1925 ई |
पेशा | अभिनेता, नाटककार, निर्देशक |
मूल नाम | सुधीन्द्र सरकार |
अभिभावक | पिता- महेन्द्रलाल सरकार, माता- सरलमना सरकार |
मुख्य रचनाएँ | इन्द्रजित (1963), पगला घोड़ा (1967), राम श्याम जोदू (1961), कवि कहानी (1964), बाक़ी इतिहास (1965), तीसरी शताब्दी (1966) आदि। |
विशेष योगदान | नुक्कड़ नाटकों को लोकप्रिय बनाने, उसे रंगमंच की समकालीन बहस के बीच लाने में सबसे बड़ा योगदान बादल सरकार का ही है। |
मृत्यु | 13 मई 2011 |
15 जुलाई, 1925 को कोलकाता के एक ईसाई परिवार में सुधीन्द्र सरकार, जिन्हें दुनिया बादल सरकार के नाम से जानती है, का जन्म हुआ। उनके पिता, महेन्द्रलाल सरकार, प्रतिष्ठित ‘स्कॉटिश चर्च कॉलेज’ में प्राध्यापक थे और इस विदेशी संचालित संस्थान के पहले भारतीय प्रधानाचार्य बने।
उनकी माता, सरलमना सरकार ने उन्हें साहित्य की दुनिया से परिचित कराया और प्रेरित किया। अपनी शैक्षणिक प्रतिभा का परिचय देते हुए, बादल सरकार ने 1941 में प्रथम श्रेणी में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की।
इसके बाद उन्होंने ‘शिवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज’ में दाखिला लिया और 1946 में सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की। इंजीनियरिंग के छात्र जीवन के दौरान ही वे मार्क्सवादी विचारधारा और राजनीति से गहराई से जुड़ गए। कई वर्षों तक कम्युनिस्ट पार्टी में सक्रिय रहने के बाद, उन्होंने बाद में पार्टी की राजनीति से दूरी बना ली।
करियर
इंजीनियरिंग की डिग्री जेब में लिए, बादल सरकार ने 1947 में नागपुर के पास एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में अपनी पहली नौकरी की। लेकिन, नियति उन्हें कहीं और ले जाना चाहती थी, और वे जल्द ही कोलकाता लौट आए, जहां उन्होंने जादवपुर और कोलकाता विश्वविद्यालय में इंजीनियर के तौर पर अपनी सेवाएं दीं। उन दिनों, नौकरी की व्यस्तता के बावजूद, उनका सीखने का जज़्बा शांत नहीं हुआ था, और वे शिवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज की शाम की कक्षाओं में ‘टाउन प्लानिंग’ में डिप्लोमा हासिल करने के लिए अध्ययन करते रहे। 1953 में, दामोदर वैली कॉरपोरेशन में नौकरी मिलने के बाद, उनका ठिकाना मैथन हो गया।
मायथन में 1956 तक का उनका प्रवास एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ, क्योंकि यहीं पर उनके भीतर नाटक के प्रति एक अनदेखी चिंगारी सुलग उठी। उन्होंने दफ्तर के अपने साथियों के साथ मिलकर एक अनूठा ‘अभिनव रिहर्सल क्लब’ शुरू किया। इस क्लब का नियम, स्वयं बादल सरकार के शब्दों में, बड़ा दिलचस्प था: “रिहर्सल होगा, पर नाटक का मंचन कभी नहीं होगा!” यह एक ऐसा नियम था जो सदस्यों के भीतर छिपे नाट्य प्रेम के आगे टिक नहीं पाया, और उनके प्रबल उत्साह ने आखिरकार इस अनोखे निषेध को तोड़ दिया, जिससे नाटकों के मंचन का सिलसिला शुरू हो गया।
बचपन से ही नाटकों की रंगीन दुनिया ने बादल सरकार को अपनी ओर आकर्षित किया था। उन्हें नाटकों में हास्य रस विशेष रूप से प्रिय था, इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि उनके शुरुआती नाटकों में यह तत्व खुलकर सामने आया। वे इसे ‘सिचुएशन कॉमेडी’ का नाम देते थे। इसी रुझान का परिणाम था उनका 1956 में लिखा गया पहला नाटक, ‘सॉल्यूशन एक्स’। यह नाटक एक विदेशी फिल्म, ‘मंकी बिजनेस’ की कहानी पर आधारित एक मजेदार सिचुएशन कॉमेडी के रूप में खूब लोकप्रिय हुआ।
विदेशी जमीन
1957 से 1958 – ये दो साल बादल सरकार के जीवन में एक रोमांचक पटकथा की तरह थे। इंग्लैंड में ‘टाउन-प्लानिंग’ की पढ़ाई के साथ-साथ, उन्हें लंदन के जीवंत नाट्य जगत को करीब से देखने का अवसर मिला। विवियन ले, चार्ल्स लॉटन और माइकल रेडग्रेव जैसे दिग्गज कलाकारों के अभिनय ने उनकी कलात्मक समझ पर गहरी छाप छोड़ी। लेकिन, शायद उनके ‘तीसरे रंगमंच’ की नींव तब पड़ी, जब उन्होंने फ्रेंच कवि रॉसिन की कृति ‘फ्रिड्रे’ को ‘थिएटर-इन-राउंड’ में देखा। 21 फरवरी, 1958 की उस रात, मुक्त मंच की वह प्रस्तुति उनके मन मस्तिष्क पर ऐसी छा गई कि उन्होंने अपनी डायरी में लिखा, ‘आज जो देखा, उसे कभी भुला न पाऊंगा।’ वर्षों बाद, इसी अनुभव ने उनके ‘तीसरे रंगमंच’ की क्रांतिकारी अवधारणा को जन्म दिया।
इंग्लैंड के प्रवास के दौरान ही उनकी रचनात्मक लेखनी ने उड़ान भरी और उन्होंने ‘बोड़ो पीशी मां’ (बड़ी बूआजी) जैसी कृति रची। इसी समय, उन्होंने ‘शनिवार’ नामक एक छोटा नाटक भी लिखा, जो जे.बी. प्रीस्टले के प्रसिद्ध नाटक ‘एन इंस्पेक्टर कॉल्स’ से प्रेरित था। 1959 में जब वे इंग्लैंड से कोलकाता लौटे, तो उनके मन में रंगमंच को लेकर एक नया जुनून था। उन्होंने अपने उत्साही मित्रों के साथ मिलकर ‘चक्रगोष्ठी’ नामक एक नाट्य संस्था की नींव रखी। हर शनिवार को इस गोष्ठी में नाटकों के पाठ के साथ-साथ संगीत, साहित्य और विज्ञान जैसे विविध विषयों पर जीवंत चर्चाएं होती थीं। इसी ‘चक्रगोष्ठी’ के प्रयासों से उनके कई शुरुआती नाटकों – जैसे ‘बोड़ो पीशीमां’, ‘शोनिबार’, ‘समावृत’ और ‘रामश्यामजदु’ – को दर्शकों से जुड़ने का मौका मिला।
इसके बाद, बादल सरकार को फ्रांस सरकार की उदार आर्थिक सहायता मिली और वे वहां अध्ययन के लिए गए। फिर, अगले तीन वर्षों तक उन्होंने नाइजीरिया में नौकरी की। इस विदेशी धरती पर प्रवास के दौरान, उनकी लेखनी और भी समृद्ध हुई और उन्होंने ‘एबों इन्द्रजित’, ‘सारा रात्तिर’, ‘बल्लभपुरेर रूपकथा’, ‘जोदी आर एकबार’, ‘त्रिंश शताब्दी’, ‘पागला घोड़ा’, ‘प्रलाप’ और ‘पोरे कोनोदिन’ जैसे कई महत्वपूर्ण नाटकों की रचना की, जो भारतीय रंगमंच के इतिहास में मील के पत्थर साबित हुए।
भारत लौटने से पहले ही…
बादल सरकार की नाट्य प्रतिभा का लोहा ‘एबों इन्द्रजित’ के प्रकाशन के साथ ही बज उठा – बहुरूपी नाट्य पत्रिका के 22 जुलाई, 1965 के अंक में यह कृति छपी और देखते ही देखते उनकी ख्याति चारों दिशाओं में फैल गई। इस नाटक का पहला मंचन ‘शौभनिक’ नाट्य संस्था ने 16 दिसंबर, 1965 को किया, और इसके मंचन ने तो नाट्य जगत में जैसे तहलका मचा दिया। 1968 में, इस कालजयी रचना के लिए उन्हें प्रतिष्ठित संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
नाइजीरिया से स्वदेश लौटते ही, बादल सरकार की लेखनी एक और गहरा मोड़ ले गई, जब उन्होंने ‘बाकी इतिहास’ की रचना की। उस दौर में शंभु मित्र भारतीय रंगमंच के शिखर पर विराजमान थे, और उनकी नाट्य संस्था ‘बहुरूपी’ ने ‘बाकी इतिहास’ का सफल मंचन किया। ये दोनों ही नाटक उनके पहले के ‘सिचुएशनल कॉमेडी’ शैली के नाटकों से बिलकुल अलग थे, जो भारतीय रंगमंच में एक नए युग के आगमन का स्पष्ट संकेत दे रहे थे – एक ऐसा युग जो सामाजिक विमर्श, दार्शनिक गहराई और नाट्य प्रयोगों की नई राहें खोलने वाला था।
भारतीय रंगमंच का विकास
प्रसिद्ध कला और साहित्य समीक्षक चिन्मय गुहा ने बादल सरकार के बहुआयामी व्यक्तित्व पर ‘आनंद बाज़ार पत्रिका’ में विचारोत्तेजक टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि भविष्य में शायद यह बहस हो कि बीसवीं-इक्कीसवीं सदी के संधि काल में तीन अलग-अलग बादल सरकार थे।
पहले वे जिन्होंने सरस और बौद्धिक हास्य नाटक लिखे। दूसरे वे जिन्होंने हिंसा, युद्ध, परमाणु खतरे, आतंकवाद और आर्थिक असमानता के खिलाफ आवाज उठाई। और तीसरे वे जिन्होंने मंच को आम जनता तक मुक्त आकाश के नीचे ले जाने का सपना देखा।
गुहा मानते हैं कि भविष्य के पाठकों को इन तीनों को एक मानना कठिन होगा। लेकिन, भारतीय जनता के समान सुख-दुख और शोषण के कारण उनकी एक विशिष्ट पहचान बनी, जिसने भाषा, प्रांत और संस्कृति की दीवारों को तोड़ा। इसी पहचान पर भारतीय रंगमंच का विकास हुआ।
जब मनोरंजन के साधनों से सत्ता की संस्कृति जन संस्कृति को भ्रमित कर रही थी, तब तीसरे रंगमंच ने प्रतिरोध की संस्कृति को जीवित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बादल सरकार और उनका तीसरा रंगमंच भविष्य के पाठकों को आज की सरकारों की तरह ही करीब लगेंगे।∎