डॉ॰ रामविलास शर्मा (Ram Vilas Sharma)आधुनिक हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध आलोचक, निबंधकार, विचारक एवं कवि थे। पेशे से अंग्रेजी के प्रोफेसर, दिल से हिन्दी के प्रकांड पंडित और गहरे विचारक, ऋग्वेद और मार्क्स के अध्येता, कवि, आलोचक, इतिहासवेत्ता, भाषाविद, राजनीति-विशारद ये सब उनके व्यक्तित्व को और ज्यादा प्रगाढ़ बनाते हैं।
नाम | रामविलास शर्मा |
जन्म | 10 अक्टूबर 1912 |
जन्म स्थान | ऊंचगांव सानी, जिला उन्नाव, उत्तर प्रदेश |
शिक्षा | एम ए (अंग्रेजी), पीएचडी |
पेशा | कवि, आलोचक, इतिहासवेत्ता, भाषाविद |
विधा | आलोचना, विवेचना, कविता |
लेखन विषय | आलोचना, भाषाविज्ञान, इतिहास, संस्कृति, आत्मकथा, इत्यादि |
महत्त्वपूर्ण कार्य | निराला की साहित्य साधना खंड 1 एवं 2, प्रगति और परम्परा (1949), संस्कृति और साहित्य (1949) |
पुरस्कार | साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान |
मृत्यु | 30 मई 2000, दिल्ली |
डॉ॰ रामविलास शर्मा ने लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम॰ए॰ किया और वहीं अस्थाई रूप से पढ़ाने लगे। 1940 में वहीं से पी०एच०डी की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद 1943 में बलवंत राजपूत काॅलेज, आगरा में अंग्रेजी विभाग में अध्यापन कार्य शुरु किया और अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष पद पर आसीन हुए। 1971 -74 तक कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी हिन्दी तथा भाषाविज्ञान विद्यापीठ, आगरा में निदेशक पद पर रहे। 1974 में सेवानिवृत्त हो गए।
वर्ष 1934 में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के संपर्क में आने के बाद रामविलास शर्मा का साहित्यिक जीवन शुरू हुआ। इसी वर्ष उन्होंने अपना प्रथम आलोचनात्मक लेख 'निरालाजी की कविता' लिखा जो चर्चित पत्रिका 'चाँद' में प्रकाशित हुआ। इसके बाद वे निरंतर सृजन की ओर उन्मुख रहे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद डॉ॰ रामविलास शर्मा ही एक ऐसे आलोचक के रूप में स्थापित होते हैं, जो भाषा, साहित्य और समाज को एक साथ रखकर मूल्यांकन करते हैं।
हिंदी जाति की अवधारणा डॉ रामविलास शर्मा की महत्वपूर्ण स्थापनाओं में से एक है। डॉ॰ रामविलास शर्मा की ‘हिन्दी जाति' की अवधारणा में जाति शब्द का प्रयोग नस्ल (Race) या बिरादरी (Caste) के लिए न होकर राष्ट्रीयता (Nationality) के अर्थ में हुआ है। अवधी, ब्रजभाषा, भोजपुरी, मगही, बुंदेलखंडी, राजस्थानी आदि बोलियों के बीच अंतरजनपदीय स्तर पर हिंदी की प्रमुख भूमिका को देखते हुए रामविलासजी ने ‘हिंदी जाति’ की अवधारणा सामने रखी, ताकि इन बोलियों को बोलने वाले जनपदीय या क्षेत्रीय पृथकता की भावना से उबर कर हिंदी को अपनी जातीय भाषा के रूप में स्वीकार कर सकें।
'निराला की साहित्य साधना' द्वितीय खण्ड में इसे स्पष्ट करते हुए रामविलास जी ने लिखा है-
भारत में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। इन भाषाओं के अपने-अपने प्रदेश हैं। इन प्रदेशों में रहने वाले लोगों को ‘जाति’ की संज्ञा दी जाती है। वर्ण-व्यवस्था वाली जाति-पाँत से इस ‘जाति’ का अर्थ बिल्कुल भिन्न है। किसी भाषा को बोलने वाली, उस भाषा क्षेत्र में बसने वाली इकाई का नाम जाति है। अर्थात् जाति का सीधा संबंध भाषा से है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद डॉ॰ रामविलास शर्मा ही एक ऐसे आलोचक के रूप में स्थापित होते हैं, जो भाषा, साहित्य और समाज को एक साथ रखकर मूल्यांकन करते हैं। उनकी आलोचना प्रक्रिया में केवल साहित्य ही नहीं होता बल्कि वे समाज, अर्थ, राजनीति, इतिहास को एक साथ लेकर साहित्य का मूल्यांकन करते हैं। अन्य आलोचकों की तरह उन्होंने किसी रचनाकार का मूल्यांकन केवल लेखकीय कौशल को जाँचने के लिए नहीं किया है, बल्कि उनके मूल्यांकन की कसौटी यह होती है कि उस रचनाकार ने अपने समय के साथ कितना न्याय किया है।
इतिहास की समस्याओं से जूझना मानो उनकी पहली प्रतिज्ञा हो। वे भारतीय इतिहास की हर समस्या का निदान खोजने में जुटे रहे। उन्होंने जब यह कहा कि आर्य भारत के मूल निवासी हैं, तब इसका विरोध हुआ था। उन्होंने कहा कि आर्य पश्चिम एशिया या किसी दूसरे स्थान से भारत में नहीं आए हैं, बल्कि सच यह है कि वे भारत से पश्चिम एशिया की ओर गए हैं। वे लिखते हैं - ‘‘दूसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व बड़े-बड़े जन अभियानों की सहस्त्राब्दी है।
इसी दौरान भारतीय आर्यों के दल इराक से लेकर तुर्की तक फैल जाते हैं। वे अपनी भाषा और संस्कृति की छाप सर्वत्र छोड़ते जाते हैं। पूँजीवादी इतिहासकारों ने उल्टी गंगा बहाई है। जो युग आर्यों के बहिर्गमन का है, उसे वे भारत में उनके प्रवेश का युग कहते हैं। इसके साथ ही वे यह प्रयास करते हैं कि पश्चिम एशिया के वर्तमान निवासियों की आँखों से उनकी प्राचीन संस्कृति का वह पक्ष ओझल रहे, जिसका संबंध भारत से है। सबसे पहले स्वयं भारतवासियों को यह संबंध समझना है, फिर उसे अपने पड़ोसियों को समझाना है।
शब्दों की संरचना और उनकी उत्पत्ति का विश्लेषण कर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आर्यों की भाषा का गहरा प्रभाव यूरोप और पश्चिम एशिया की भाषाओं पर है।
वे लिखते हैं - ‘‘सन् 1786 में ग्रीक, लैटिन और संस्कृत के विद्वान विलियम जोंस ने कहा था, ‘ग्रीक की अपेक्षा संस्कृत अधिक पूर्ण है। लेटिन की अपेक्षा अधिक समृद्ध है और दोनों में किसी की भी अपेक्षा अधिक सुचारू रूप से परिष्कृत है।’ पर दोनों से क्रियामूलों और व्याकरण रूपों में उसका इतना गहरा संबंध है, जितना अकस्मात उत्पन्न नहीं हो सकता। यह संबंध सचमुच ही इतना सुस्पष्ट है कि कोई भी भाषाशास्त्री इन तीनों की परीक्षा करने पर यह विश्वास किए बिना नहीं रह सकता कि वे एक ही स्रोत से जन्मे हैं। जो स्रोत शायद अब विद्यमान नहीं है।
साहित्यिक आलोचना | भाषा-समाज | इतिहास, समाज और दर्शन | कविता-नाटक-उपन्यास | आत्मकथा |
प्रेमचन्द -1941 | भाषा और समाज -1961 | मानव सभ्यता का विकास -1956 | चार दिन (उपन्यास) -1936 | मेरे साक्षात्कार (1994) |
निराला -1946 | भारत की भाषा समस्या -1978 | भारत में अंग्रेज़ी राज और मार्क्सवाद (दो खण्डों में) -1982 | 'तार सप्तक' में संकलित कविताएँ -1943 | अपनी धरती अपने लोग (आत्मकथा, तीन खण्डों में) -1996 |
प्रेमचन्द और उनका युग -1952 | भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी-1 | स्वाधीनता संग्राम : बदलते परिप्रेक्ष्य -1992 | महाराजा कठपुतली सिंह (प्रहसन) -1946 | |
प्रगतिशील साहित्य की समस्याएँ -1954 | भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी-2 | पश्चिमी एशिया और ऋग्वेद -1994 | ||
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिन्दी आलोचना -1955 | भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी-3 | भारतीय नवजागरण और यूरोप -1996 | ||
निराला की साहित्य साधना-भाग 1, 2, 3 (जीवनी) -1969, 1972, 1976 | भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश (दो खण्डों में) -1999 |
30 मई 2000 को दिल्ली में इनका निधन हो गया। इनके निधन से हिंदी साहित्य जगत को जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई आज तक नहीं हो सकी।