"तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा",
आज़ाद हिन्द फोज के निर्माता, देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले, स्वतंत्रता संग्राम के अगुआ सुभाष चंद्र बोस।
नेताजी का जन्म 23 जनवरी 1897 को ओड़िशा के कटक शहर में हिन्दू बांग्ला परिवार में हुआ, इनके पिता शहर के मशहूर वकील थे, पहले सरकारी वकील फिर निजी रूप से प्रैक्टिस शुरू कर दी, इनके पिता बंगाल विधानसभा के सदस्य थे और कटक की महापालिका में भी काम किया।
कटक में प्रोटेस्टेण्ट स्कूल से प्राइमेरी की शिक्षा पूरी कर 1909 में उन्होंने रेवेनशा कॉलेजियेट स्कूल में दाखिल हुए। पन्द्रह वर्ष की आयु में सुभाष ने विवेकानन्द साहित्य का पूर्ण अध्ययन कर लिया था।
बंगाल रेजीमेंट में भर्ती के लिए परीक्षा दी किन्तु आँखें खराब होने के कारण उन्हें सेना के लिए अयोग्य बताया गया।
जन्म | 23 जनवरी 1897,कटक, ओड़िशा |
मृत्यु | 18 अगस्त 1945, ताइवान, जापान |
माता | जानकीनाथ बोस |
पिता | प्रभावती |
विवाह | एमिली शेंकल |
संतान | अनीता बोस फ़फ़ |
राजनीतिक दल | भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस, ऑल इंडिया फार्वर्ड ब्लॉक |
बोस ने 5 जुलाई 1943 को सिंगापूर के टाउन हाल के सामने 'सुप्रीम कमाण्डर' (सर्वोच्च सेनापति) के रूप में सेना को सम्बोधित करते हुए "दिल्ली चलो!" का नारा दिया। कोलकत्ता के स्वतंत्रता सेनानी देशबंधु चितरंजन बोस से प्रेरित होकर उनके साथ काम करने लगते हैं। रवींद्रनाथ ठाकुर के कहने पर मुंबई जाकर बापू से मुलाकात की, गांधी जी ने उन से दासबाबू के साथ काम करने के लिए कहा।
इस सब के बाद बहुत जल्द सुभाष देश के युवा नेता बन गए, काँग्रेस में इन्होंने युवकों की इण्डिपेण्डेंस लीग शुरू की।
अपने जीवन में सुभाष, गांधी और काँग्रेस की नीतियों से कई बार समझोत करके चलना पड़ा।
1930 के दशक में एक पुस्तक “द इंडियन स्ट्रगल” लिखी, इस पुस्तक को लिखने से पूर्व उन्होंने इस विषय पर शोधकार्य किया, इस पुस्तक में उन्होंने 1920-1934 तक हुए सभी स्वतंत्रता आंदोलनों को इसमें शामिल किया।
उन्होंने स्वतंत्रता का समर्थन और मोतीलाल नेहरू की रिपोर्ट का विरोध किया जिसमें अधिराज्य(डोमिनियन) दर्जे की बात की गई थी।
1925 में गोपीनाथ शाह ने गलती से एक व्यापारी को मार दिया था, जिसके लिए उन्हें आंग्रेज़ सरकार द्वारा फाँसी की सज़ा दी गई, सुभाष उसकी मौत पर खूब रोए और उसका शव मांगकर उसका अंतिम संस्कार किया। इससे आंग्रेज़ी हुकूमत को यह मालूम हुआ की सुभाष ना केवल आंदोलनकारियों से संबंध ही रखते हैं बल्कि उनको प्रेरित भी करते हैं। सुभाष चसन्दर बोस आपने जीवनकाल में 11 बार जेल जा चुके हैं।
5 नवंबर 1925 को चितरंजन दास की मृत्यु की खबर से जेल में सुभाष की तब्यत बिगड़ती गई, उन्हें तपेदीक हो गया। अंग्रेज सरकार ने उन्हें रिहा करने की शर्त जाहीर की कि वे इलाज के लिए यूरोप जाएं मगर उन्होंने लौटने का समय नहीं बताया इसलिए नेताजी यूरोप इलाज के लिए नहीं गए, बाद में जब उनकी हालत बहुत कमज़ोर हो गई, उनकी तब्यत बिगड़ती गई तब उन्हें सरकार द्वारा रिहा कर दिया गया, अंग्रेज़ सरकार ये खतरा नहीं उठा सकती थी कि नेताजी जेल में मर जाएं।
जर्मनी में उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आज़ाद हिन्द रेडियो की स्थापना की,
29 मई 1942 को नेताजी एडोल्फ हिटलर से मिले, किन्तु हिटलर को भारत में कोई विशेष रुचि नहीं थी, इसी वजह से हिटलर ने नेताजी को सीधे-सीधे कोई वचन नहीं दिया।
कई वर्ष पूर्व हिटलर ने एक पुस्तक “मीन कैम्प” की रचना की जिसमें उसने भारत और भारतीय लोगों के की बुराई की, नेता जी ने इस बात को उठाते हुए उन से नाराजगी जताई जिस पर हिटलर ने माफी मांगते हुए अगले संस्करण में उसके सुधार की बात कही।
द्वितीय विश्वयुद्ध में जब जापान हार गया तब नेताजी ने दूसरा रास्ता ढुँढना जरूरी समझा, जिसके लिए नेताजी 18 अगस्त 1945 को जहाज से मंचूरिया की तरफ़ सफर कर रहे थे, उस सफर के बाद वे कभी कहीं दिखाई नहीं दिए। 23 अगस्त को टोक्यो रेडियो में बताया गया कि 18 अगस्त के दिन वह विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। उस दुर्घटना में नेताजी बुरी तरह जल गए, ऐसा बताया गया, नेताजी ने जापान के एक अस्पताल में ही दम तोड़ दिया।
भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागारों के अनुसार नेताजी की मृत्यु जापान के ताइहोकू अस्पताल में रात के 21:00 को हुई।
देश भर के लोग इस बात को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं थे कि नेताजी की मृत्यु उस घटना में हुई, उस दिन के बाद भी कई लोग देश के अलग-अलग कोने से उनके दिखाई दिए जाने की आशंका जातते आए हैं, लेकिन इन सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है,
सरकारी रूप से इस बात की तह तक पहुँचने के लिए सरकार ने एक पीठ की गठन किया
कलकत्ता हाई कोर्ट द्वारा नेताजी के लापता होने के रहस्य से जुड़े खुफिया दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की मांग सामने राखी,इस सुनवाई के लिए एक पीठ का गठन किया।