स्वामी प्रणवानंद जी महाराज का आगमन 1896 में अविभाजित भारत के बाजितपुर (बांग्लादेश) गांव में हुआ था। बचपन में उन्हें 'बिनोद' के नाम से पुकारा जाता था। वे अक्सर गंभीर विचारों में डूबे रहते थे, जो अंततः आध्यात्मिक विकास और निस्वार्थ सेवा के माध्यम से 'आत्म-मुक्ति' और 'मानव उत्थान' के उद्देश्य से गहन ध्यान में बदल जाते थे। ब्रह्मचारी के रूप में उन्होंने ध्यान, आध्यात्मिक समाधि और सेवा (लोगों की सेवा) में अनगिनत घंटे बिताए। उनके पिता विशनुचरण दास और माता शारदा देवी दोनों शिवभक्त थे।
आविर्भाव | 24 फरवरी 1896 |
धर्म | हिन्दू |
संस्थापक | भारत सेवा श्रम संघ |
समाधि | 8 जनवरी 1941 |
बचपन से ही वे ध्यान-मग्न रहने लगे थे, कक्षा में सबसे आखिरी पंक्ति में बैठते और ध्यान लगाते, नाम पुकारने पर ऐसे चौंक पड़ते जैसे सोए हुए हों। जैसे-जैसे वे बड़े हो रहे थे वैसे-वैसे उनके ध्यान का समय भी बढ़ने लगा था। पाठशाला खत्म होने के पश्चात उन्हें अंग्रेज़ी विद्यालय में भेज गया 24 फरवरी 1896 को इनका आविर्भाव हुआ। स्वामी प्रणवानंद जी महाराज ने भारत सेवा श्रम संघ की स्थान स्थापना की। इनके अनुयायी इन्हें भगवान शिव का अवतार मानते हैं।
उनका संपर्क क्रांतिकारियों से भी रहा जिस वजह से उन्हें लंबे समय तक जेल में भी रहना पड़ा। वे अपने विप्लवी प्राचार्य सन्तोष दत्त से सन्यास के बारे में बात करते रहते थे। इस वार्ता के पश्चात प्राचार्य ने उन्हें गोरखपुर में बाबा गंभीरनाथ के पास उन्हें 1913 में विजयादशमी के दिन ब्रह्मचर्य की दीक्षा ली। इसके बाद वे घंटों तक ध्यान में ही रहने लगे, उनके गुरु ही उन्हें बुला कर खाना देते थे। तकरीबन आठ महीनों के बाद वे गुरु के आशीर्वाद से प्रथमतः काशी और फिर अपने गाँव गए। कहा जाता है की 1916 में माघ पूर्णिमा को उन्हें शिव-तत्व की प्राप्ति हुई। करीब साल भर बाद उन्होंने बाजितपुर में एक आश्रम की स्थापना की जिससे गरीब, भूखे, असहाय पीड़ितों, की मदद की जाती थी। उनका दूसरा आश्रम मदारीपुर में था।
1924 में उन्होंने पौष पूर्णिमा के दिन स्वामी गोविंदनंद से दीक्षा ली, तब उनका नाम स्वामी प्रणवानन्द हो गया। इसके बाद उन्होंने गया, पूरी, काशी, प्रयाग आदि स्थानों पर आश्रम की स्थापना की। और तभी से भारत सेवा श्रम संघ लोगों की मदद कार्य में लगा है। उन्होंने समाज सेवा, तीर्थ संस्कार, धार्मिक और नैतिक आदर्श का प्रचार, गुरु पूजा के प्रति जागरूकता जैसे अनेक कार्य किए।
स्वामी प्रणवानन्द जातिगत भेदभाव को नहीं मानते, इसीलिए उन्होंने अपने आश्रम में ‘हिन्दू मिलन मंदिर’ बनवाया जिसमें पूरा हिन्दू समाज मिलकर प्रार्थना आदि कार्य कर सके। इसके इतर मंदिर में धर्मशास्त्रों की भी शिक्षा दी जाती थी। इसका उद्देश्य सभी हिंदूओं को जातिगत भेदभाव से ऊपर उठाकर एकजुट करना था।
वर्तमान में देश-विदेश समेत भारत सेवा श्रम संघ के 75 से अधिक आश्रम कार्यरत हैं। 8 जनवरी 1948 को स्वामी प्रणवानन्द ने बाजितपुर में समाधि ली।