“सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आयी फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,
चमक उठी सन् सत्तावन में
वह तलवार पुरानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी॥”
-सुभद्रा कुमारी चौहान
सुभद्रा कुमारी चौहान की ये कविता हम सब ने बचपन में पढ़ी होगी। इस कविता ने हम सभी में राष्ट्र के प्रति प्रेम भाव का संचार किया तथापि इस कविता के माध्यम से हमें झाँसी की रानी ‘वीरांगना लक्ष्मीबाई‘ और 1857 की क्रांति के बारे में ज्ञान हुआ। आज उन्हीं वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि है।
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी में 19 नवम्बर 1828 को हुआ था। उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन प्यार से उन्हें 'मनु' कहा जाता था। उनकी माँ का नाम भागीरथीबाई और पिता का नाम मोरोपंत तांबे था। मोरोपंत एक मराठी थे और मराठा बाजीराव की सेवा में थे। बचपन में ही उनकी माँ का निधन हो गया। घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में ले जाने लगे, मनु को सब लोग प्यार से ‘छबीली’ कहकर बुलाने लगे। बचपन में मनु ने शस्त्र और शास्त्र, दोनों की शिक्षा ग्रहण की।
सन् 1842 में उनका विवाह झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ और वे झाँसी की रानी बनीं। विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सितंबर 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया किन्तु चार महीने की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर राजा और रानी ने एक दत्तक पुत्र गोद लिया, जिसका नाम उन्होंने गंगाधर राव रखा।
मौलिक रूप से यह एक विस्तारवादी नीति थी। व्यपगत का सिद्धांत या ‘हड़प निति (Doctrine of Lapse)’ वस्तुतः पैतृक वारिस के न होने की स्थिति में सर्वोच्च सत्ता कंपनी के द्वारा अपने अधीनस्थ क्षेत्रों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने की नीति थी। यह सिद्धांत निर्धारित करता था कि यदि किसी भारतीय शासक की मृत्यु बिना पुरुष उत्तराधिकारी के ही हो जाये, तो उसका राज्य "व्यपगत" हो जाएगा और स्वचालित रूप से ईस्ट इंडिया कंपनी के क्षेत्रों का हिस्सा बन जाएगा।
इस निति के बहाने से, कंपनी ने सतारा (1848), जैतपुर, संबलपुर (1849), बघाट (1850), उदयपुर (छत्तीसगढ़ राज्य) (1852), झांसी (1854), नागपुर (1854) तंजौर और आरकोट (1855) तथा अवध (1856) की रियासतों पर अधिकार कर लिया।
इस सिद्धांत द्वारा कंपनी ने अपने वार्षिक राजस्व में लगभग चार मिलियन पाउंड स्टर्लिंग जोड़े।
इस सिद्धांत को व्यापक रूप से कई भारतीयों द्वारा नाजायज माना जाता था। कपनी द्वारा किये गए इस नाजायज़ विलय से भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ आक्रोश बढ़ गया, और यह 1857 के विद्रोह के कारणों में से एक था।
1857 की क्रांति ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के विरुद्ध भारत में एक प्रमुख विद्रोह था। इसे ‘सिपाही विद्रोह’ भी कहा जाता है। वीर सावरकर ने इसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा। यह विद्रोह दो वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चला।
झाँसी 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करने के लिए एक स्वयंसेवक सेना का गठन किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती की भी गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया। रानी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल झलकारी बाई को दुर्गा सेना का प्रमुख बनाया गया।
रानी ने 1857 के सितम्बर तथा अक्टूबर के महीनों में पड़ोसी राज्य ‘ओरछा’ तथा ‘दतिया’ के राजाओं ने झाँसी पर संयुक्त आक्रमण को सफलतापूर्वक विफल कर दिया। मार्च, 1858 तक आते-आते ब्रिटिश ने शहर को घेर लिया। दो हफ़्तों के युद्ध के पश्चात् ब्रितानी सेना ने शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया किन्तु रानी दामोदर राव के साथ अंग्रेज़ों से बच कर भाग निकलने में सफल हो गयी। लोककथाओं के अनुसार, दामोदर राव को अपनी पीठ पर बिठाकर वह किले से अपने घोड़े बादल पर कूद पड़ी; वे दोनों बच गए लेकिन घोड़ा मर गया।
वह कुछ पहरेदारों के साथ कालपी चली गईं, जहाँ वह तात्या टोपे सहित अतिरिक्त विद्रोही सेना में शामिल हो गईं। उन्होंने कालपी शहर पर कब्जा कर लिया। 22 मई को ब्रिटिश सेना ने जनरल ह्यूरोज़ के नेतृत्व में कालपी पर आक्रमण किया।
भारतीय सेना की कमान स्वयं रानी लक्ष्मीबाई ने संभाली थी। किन्तु इस युद्ध में ब्रिटिश सेना विजयी रही।
प्रारंभिक बमबारी के बाद, रानी के सहयोगी राव साहब और बांदा के नवाब द्वारा एक साहसिक जवाबी हमले ने अंग्रेजों को चौंका दिया। हालाँकि, विद्रोहियो को इस भारी लड़ाई में हार का सामना करना पड़ा और वे पश्चिम की ओर ग्वालियर की ओर चले गए।
18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रितानी सेना से लड़ते-लड़ते रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु हो गई। लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रितानी जनरल ह्यूरोज़ ने टिप्पणी की कि रानी लक्ष्मीबाई अपनी सुन्दरता, चालाकी और दृढ़ता के लिये उल्लेखनीय तो थी ही, साथ-ही विद्रोही नेताओं में सबसे अधिक ख़तरनाक भी थी।