सैम मानेकशॉ – Sam Manekshaw : पुण्यतिथि विशेष

आज 27 जून को फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की पुण्यतिथि है। 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय फील्ड मार्शल (तब जनरल) सैम मानेकशॉ भारतीय सेना के सेनाध्यक्ष थे। उन्हीं के नेतृत्व में भारतीय सेना ने यह युद्ध जीता था और एक नए देश बांग्लादेश का जन्म हुआ।

आज उनकी पुण्यतिथि पर जानतें हैं उनके बारे में

फील्ड मरहल सैम होर्मूसजी मानेकशॉ (सैम होर्मूसजी फ्रेमजी जमशेदजी मानेकशॉ) का जन्म 3 अप्रैल 1914 को हुआ था। उन्हें ‘सैम बहादुर’ का उपनाम भी दिया गया है। उनका जन्म अमृतसर में एक पारसी परिवार में हुआ था।

सैन्य करियर 

मानेकशॉ के कमीशनिंग के समय, नए कमीशन प्राप्त भारतीय अधिकारियों के लिए भारतीय इकाई में भेजे जाने से पहले शुरुआत में ब्रिटिश रेजिमेंट से जुड़ना एक मानक अभ्यास हुआ करता था। इसलिए, सैम मानेकशॉ लाहौर में तैनात दूसरी बटालियन, रॉयल स्कॉट्स में शामिल हो गए। बाद में उन्हें बर्मा में तैनात 12वीं फ्रंटियर फोर्स रेजिमेंट की चौथी बटालियन में तैनात किया गया।

इस बटालियन का द्वितीय विश्व युद्ध में बतौर कप्तान उन्होंने 12वीं फ्रंटियर फोर्स रेजिमेंट की चौथी (सिख) बटालियन का नेतृत्व किया। बर्मा अभियान के दौरान सेतांग नदी के तट पर जापानियों से लड़ते हुए वे गम्भीर रूप से घायल हो गए थे। ठीक होने के पश्चात् वे पुनः युद्ध में सम्मिलित हुए और युद्ध भूमि में पुनः जख़्मी हुए। 

बाद में ‘सैम बहादुर’ को स्टॉफ आफिसर बनाकर जापानियों के आत्मसमर्पण के लिए इंडो-चाइना भेजा गया जहां उन्होंने लगभग 10000 युद्ध बंदियों के पुनर्वास में अपना योगदान दिया।

भारत के विभाजन के पश्चात् बंटवारे में मानेकशॉ की पलटन पाकिस्तानी सेना का हिस्सा बन गयी, इसलिए वे 8 गोरखा रेजिमेंट में पदस्थापित हुए। 1947 में, मानेकशॉ को तीसरी बटालियन, 5 गोरखा राइफल्स (फ्रंटियर फोर्स) (3/5 जीआर (एफएफ)) के कामनाधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया था। 

1957 में, वे हायर कमांड कोर्स के लिए इम्पीरियल डिफेन्स कॉलेज, लंदन गए थे। तत्पश्चात, मेजर जनरल के रूप में उन्होंने 26वीं इन्फेंट्री डिवीज़न का नेतृत्व किया। लेफ्टिनेंट जनरल बनने के बाद उन्हें 16 कोर, पश्चिमी कमान, और फिर पूर्वी कमान सम्भालने का दायित्व दिया गया। 8 जून, 1969 को वे भारत के सेनाध्यक्ष बने। 15 जनवरी, 1973 तक वे इस पद पर बने रहे। उनके इस कार्यकाल में भारत ने पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध जीता और पाकिस्तान के दो टुकड़े हुए। साथ ही विश्व पटल पर एक नए राष्ट्र का उदय हुआ। इस नवगठित राष्ट्र को ‘बांग्लादेश’ के नाम से जाना जाता है। उनके इस योगदान के लिए जनवरी 1973 में उनको ‘फील्ड मार्शल’ की मानद उपाधि प्रदान की गयी। 

1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध

बात उन दिनों की है जब आज का बांग्लादेश पूर्वी पाकिस्तान हुआ करता था। 25 मार्च 1971 को, एक पूर्वी पाकिस्तानी राजनीतिक दल (अवामी लीग) द्वारा ने चुनाव में जीत दर्ज की। सत्तारूढ़ (पश्चिमी पाकिस्तानी) प्रतिष्ठान ने इन चुनाव परिणामों को नजरअंदाज कर दिया गया। इसके बाद बाद, पूर्वी पाकिस्तान में बढ़ते राजनीतिक असंतोष और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को क्रूर और दमनकारी ताकतों का सामना करना पड़ा। पाकिस्तानी सेना ने ‘ऑपरेशन सर्चलाईट’ चलाया जिसके तहत पाकिस्तानी सेना ने बांग्ला भाषी नागरिकों (विशेषकर हिन्दू) पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। ऑपरेशन सर्चलाइट वस्तुतः मार्च 1971 में पूर्व पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली राष्ट्रवादी आंदोलन पर अंकुश लगाने के प्रयास में पाकिस्तानी सेना द्वारा किए गए एक नियोजित सैन्य अभियान का कोड नाम था।

इससे पूर्वी पाकिस्तान में पश्चिमी पंजाबी पाकिस्तानी प्रतिष्ठान के लिए रोष उत्पन्न हुआ। इस विरोध के लिए ‘मुक्ति वाहिनी’ नामक एक संगठन खड़ा हुआ। मुक्ति वाहिनी एक छापामार संगठन था, जो पाकिस्तानी सेना के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध लड़ रहा था। मुक्ति वाहिनी को भारतीय सेना ने समर्थन और प्रशिक्षण दिया था।

पाकिस्तान में चल रहे इन घटनाक्रमों के कारण भारत के समक्ष शरणार्थी समस्या खड़ी हो गयी। अप्रैल के अंत में एक कैबिनेट बैठक के दौरान, प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने मानेकशॉ से पूछा कि क्या वह पाकिस्तान के साथ युद्ध के लिए तैयार हैं। उन्होंने उत्तर दिया कि उनके अधिकांश बख्तरबंद और पैदल सेना डिवीजन कहीं और तैनात किए गए थे, उनके केवल बारह टैंक युद्ध के लिए तैयार थे। उन्होंने यह भी बताया कि आगामी मानसून के साथ हिमालय के दर्रे जल्द ही खुल जाएंगे, जिसके परिणामस्वरूप भारी बाढ़ आएगी। कैबिनेट के कमरे से चले जाने के बाद, मानेकशॉ ने इस्तीफे की पेशकश की; इंदिरा गांधी ने मना कर दिया और इसके बजाय उनसे सलाह मांगी। उन्होंने कहा कि वह जीत की गारंटी दे सकते हैं यदि वह उन्हें अपनी शर्तों पर संघर्ष को संभालने की अनुमति दें। युद्ध की आधिकारिक शुरुआत 3 दिसंबर 1971 को हुई, जब पाकिस्तानी विमानों ने देश के पश्चिमी हिस्से में भारतीय वायु सेना के ठिकानों पर बमबारी की। इसके बाद भारतीय सैन्य बालों ने जवाबी कार्यवाई की। युद्ध के परिणाम की बात करें, तो 16 दिसंबर, 1971 को ढाका में, आधिकारिक तौर पर संघर्ष समाप्त हुआ और बांग्लादेश एक नए राष्ट्र के रूप में उभरा। भारतीय सेना ने लगभग 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों को बंदी बना लिया था। ये कहानी आज कई वॉर कॉलेज के सिलेबस का भाग है।

सेवानिवृत्त होने के बाद 

सेना से रिटायर होने के बाद, वे वेलिंग्टन, तमिलनाडु में बस गए। भारतीय सेना में अपनी सेवा के बाद, मानेकशॉ ने कई कंपनियों के बोर्ड में एक स्वतंत्र निदेशक और कुछ मामलों में चेयरमैन के रूप में कार्य किया। वृद्धावस्था में उन्हें फेफड़े संबंधी बिमारी हो गई थी और वे कोमा में चले गए। उनकी मृत्यु वेलिंगटन के सैन्य अस्पताल में 27 जून 2008 को थी। 

इन सम्मान से हुए अलंकृत

भारतीय राष्ट्र के प्रति उनकी सेवा के लिए, भारत के राष्ट्रपति ने मानेकशॉ को 1972 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया। गोरखा सैनिकों के बीच लोकप्रिय नेपाल ने 1972 में मानेकशॉ को नेपाली सेना के मानद जनरल के रूप में सम्मानित किया। 1977 में, उन्हें राजा बीरेंद्र द्वारा ऑर्डर ऑफ त्रि शक्ति पट्टा फर्स्ट क्लास, नेपाल साम्राज्य के नाइटहुड का ऑर्डर से सम्मानित किया गया था। इसके अतिरिक्त उन्हें कई युद्ध अलंकरणों से भी सम्मानित किया गया।