9 अगस्त का दिन आदिवासी समाज के लोगो के सम्मान में पूरे विश्व में ‘विश्व आदिवासी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। आखिर 9 अगस्त को ही क्यों मनाया जाता है विश्व आदिवासी दिवस? क्या है इस दिन मनाये जाने का कारण।
भारत समेत पूरे विश्व में आदिवासी लोग रहते हैं। जो अपनी अलग ही जीवनशैली में जीवन व्यतीत करते हैं। इनका रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज सब कुछ आम लोगो से बिलकुल अलग होते हैं। समाज की मुख्यधारा से कटे होने के कारण वह सभी सुविधाएँ इन आदिवासी लोगो तक नहीं पहुंच पाती जो आम आदमी तक आसानी से पहुंच जाती हैं। इस वजह से भारत समेत दुनिया के तमाम देशों ने इनके उत्थान के लिए, इन्हें बढ़ावा देने और इनके अधिकारों की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाये जाने का निर्णय किया।
आदिवासी शब्द का प्रयोग उस भौगोलिक क्षेत्र विशेष के लिए किया जाता है जिनका उस भौगोलिक क्षेत्र से ज्ञात इतिहास में सबसे पुराना संबंध रहा हो। ‘आदिवासी’ शब्द का उपयोग पहली बार यूरोपीय लोगों द्वारा अमेरिका के स्वदेशी लोगों को गुलाम अफ्रीकियों से अलग करने के लिए किया गया था। शास्त्रीय काल के यूनानी स्रोत स्वदेशी लोगों को स्वीकार करते हैं जिन्हें वे ‘पेलस्जियंस’ कहते थे। प्राचीन लेखकों ने इन लोगों को या तो यूनानियों के पूर्वजों के रूप में देखा, या यूनानियों से पहले ग्रीस में रहने वाले लोगों के पहले समूह के रूप में देखा। हैलिकार्नासस के डायोनिसियस जो एक रोमन आलोचक, साहित्यिक विद्वान थे ने अपनी किताब, रोमन एंटिक्विटीज में, अपने पास उपलब्ध स्रोतों के आधार पर पेलस्जियंस की एक संक्षिप्त व्याख्या दी है, जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि पेलस्जियंस ग्रीक थे। ग्रीको-रोमन समाज 330 ईसा पूर्व और 640 ईस्वी के बीच फला-फूला और विजयी अभियान चलाए जिसमें उस समय की ज्ञात दुनिया के आधे से अधिक हिस्से को शामिल कर लिया गया।
कभी-कभी यह तर्क दिया जाता है कि सभी अफ्रीकी, अफ्रीका के मूलनिवासी हैं, सभी एशियाई एशिया के कुछ हिस्सों के मूलनिवासी हैं, या कि उन देशों में कोई भी मूलनिवासी लोग नहीं हो सकते जिन्होंने बड़े पैमाने पर पश्चिमी उपनिवेशवाद को नहीं झेला है। कई देशों ने स्वदेशी लोग शब्द से परहेज किया है या इस बात से लगातार इंकार किया है कि उनके क्षेत्र में स्वदेशी लोग मौजूद हैं, और उन अल्पसंख्यकों को वर्गीकृत किया है जो अन्य तरीकों से स्वदेशी के रूप में पहचान करते हैं। जैसे कई देशों में इनको अन्य नामों से संबोधित किया जाता है। थाईलैंड में 'पहाड़ी जनजातियां', भारत में 'अनुसूचित जनजातियां', चीन में 'राष्ट्रीय अल्पसंख्यक', फिलीपींस में 'सांस्कृतिक अल्पसंख्यक', इंडोनेशिया में 'अलग-थलग और विदेशी लोग' और कई अन्य देशो में अन्य शब्दों से संबोधित किया जाता है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने पहली बार 1994 को अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी वर्ष घोषित किया था। आदिवासी समाज के लोग आज भी पेड़-पौधों से ही अपना भोजन प्राप्त करते हैं। इनके धर्म-त्योहार भी प्रकृति से जुड़े हैं। दुनिया भर में 500 मिलियन के करीब आदिवासी लोग रहते हैं और 7000 भाषाएं बोलते हैं, 5000 संस्कृतियों के साथ दुनिया के 22 प्रतिशत भूमि पर इनका कब्जा है। इनकी वजह से पर्यावरण संरक्षित है। साल 2016 में 2680 ट्राइबल भाषाएं विलुप्त होने की कगार पर थीं। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र ने इन भाषाओं और इस समाज के लोगों को समझने और समझाने के लिए 2019 में विश्व आदिवासी दिवस मनाने का एलान किया।
भारत के मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार आदि अधिकांश राज्यों में आदिवासी समुदाय के लोग बड़ी संख्या में रहते हैं। सिर्फ मध्य प्रदेश में गोंड, भील और ओरोन, कोरकू, सहरिया और बैगा जनजाति के लोग बड़ी संख्या में रहते हैं। बता दें कि गोंड एशिया का सबसे बड़ा आदिवासी समूह है, जिनकी संख्या 30 लाख से अधिक है। मध्य प्रदेश के अलावा गोंड जनजाति के लोग महाराष्ट्र, बिहार, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और उत्तर प्रदेश में भी रहते हैं। वहीं संथाल, बंजारा, बिहोर, चेरो, गोंड, हो, खोंड, लोहरा, माई पहरिया, मुंडा, ओरांव आदि आदिवासी समाज के लोग भारत के विभिन्न राज्यों में रहते हैं।