डॉ० बी आर अंबेडकर इस दुनिया के उन चुनिंदा लोगों में से हैं जिन्होंने अपने देश के लिए और उसके लोगों के लिए ऐसे कदम उठाए जो अगर सही समय पर न उठाए जाते तो वर्तमान भारत और विश्व में स्त्री, दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों की स्थिति कानूनी रूप से जितनी बुरी है वह इससे भी बुरी हो सकती थी।
क्योंकि किसी भी व्यक्ति, स्त्री या पुरुष का दमन इस आधार पर करना की वह किसी अन्य जात में पैदा हुआ है, यह एक खराब मानसिकता का संकेत हो सकता है, अंबेडकर किसी की मानसिकता को बदल सकने में सक्षम नहीं थे, इसलिए उनकी कोशिश रही कि वे कम-अज़-कम कानूनी रूप से इन लोगों के लिए कुछ बेहतर कर सके।
उनका मानना था की ऐसे धर्मग्रंथों को मानना हमारे समाज के लिए नुसानदेह है जो लोगों को जात के मुताबिक इंसानों में भेद भाव की भावनाओं को बढ़ावा देते हों, किसी को इसलिए नीच समझना की वह मैला उठता है या उसकी जात बाकी स्वर्ण नहीं कहलाती है यह अंबेडकर को बहुत खटक रहा था, और खटके क्यूँ न? कोई व्यक्ति किस जात में किस घर में पैदा हो रहा है या किसी भी सूरत में उस व्यक्ति के हाथ में नहीं है। इसी क्रम में फिर उस व्यक्ति को शिक्षा से वंचित रखना, सभी जल स्त्रोतों से पानी पीने से प्रतिबंधित रखना, ऐसा करने पर दंड देना, और इसी तरह की असहनीय प्रताड़ना देना जिससे बेहतर व्यक्ति को मौत लगने लगे तो इस तरह के ग्रंथों को उन्होंने ग्राह्य नहीं समझा।
यह तो रही अंबेडकर के विचार का एक छोटे से भाग से कुछ बातें, अब बात करते हैं उनके जीवन और जीवनी के बारे में।
“डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर को दो चीजों का बहुत शौक था, किताबें खरीदने का और उन्हें पढ़ने का। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती गई, किताबों से उनका लगाव भी बढ़ता गया।”
“एक समय ऐसा आया जब उनके पास करीब सात से आठ हजार किताबें हो गईं। इनकी कीमत करीब 30 से 40 हजार रुपए या उससे ज़्यादा होने का अनुमान है।”
यह जानकारी डॉ. आंबेडकर के जीवन पर लिखी गई एक पुस्तक में है, जो 1940 में प्रकाशित हुई थी। यह किताब उस समय लिखी गई, जब वह जीवित थे।
दिलचस्प बात यह है कि यह पुस्तक गुजराती भाषा में लिखी गई थी. 28 अगस्त 1940, गुजरात, गुजराती भाषा और पूरे भारत में आंबेडकरवादियों के लिए विशेष महत्व रखता है।
इसी दिन डॉ. आंबेडकर की पहली जीवनी प्रकाशित हुई थी। यह किताब जीवनी से कहीं ज़्यादा एक मूल्यवान ऐतिहासिक दस्तावेज़ है।
इस किताब के लिखे जाने और इसके प्रकाशित होने की कहानी भी उतनी ही दिलचस्प है।
यूएम सोलंकी की लिखी इस किताब का नाम था: डॉ. बीआर आंबेडकर, एस्क्वायर।
इसमें आंबेडकर के 1940 तक के जीवन का विवरण दर्ज किया गया।
उस समय उनके किए गए सामाजिक कार्यों और उनके प्रयासों को भी इसमें शामिल किया गया। उस समय उनके बारे में लोगों की सोच को भी यह किताब दर्शाती है।
अमित प्रियदर्शी ज्योतिकर ने बताया, “करशनदास लेउवा आंबेडकर के अनुसूचित जाति संघ से जुड़े गुजरात के एक प्रमुख नेता थे। वह डॉ. आंबेडकर की जीवनी लिखवाना चाहते थे, लेकिन उन्हें इसके लिए किसी योग्य व्यक्ति की तलाश थी। उस समय शिक्षा में जाति आधारित व्यवस्था के कारण बहुत कम दलित शिक्षित थे। ऐसे में एक सवाल यह था कि अगर कोई पुस्तक लिख भी देता है, तो कितने लोग इसे पढ़ पाएंगे?”
इसके बावजूद, करशनदास लेउवा जीवनी प्रकाशित करने को लेकर संकल्पित रहे। आखिरकार, इस जीवनी को लिखने के लिए योग्य व्यक्ति यूएम सोलंकी उन्हें मिल गए।
इसके बाद, करशनदास ने इस पुस्तक की भूमिका लिखी और उन्होंने डॉ. आंबेडकर की पहली जीवनी प्रकाशित करने के पीछे अपने इरादे और विचार को भी विस्तार से बताया।
भूमिका में करशनदास ने लिखा, “1933 में, मैंने पहली बार डॉ. आंबेडकर की जीवनी लिखने के बारे में सोचा। उस समय, आंबेडकर न केवल भारत में बल्कि विश्व स्तर पर एक बहुत ही प्रभावशाली व्यक्ति थे।”
“हालाँकि, गुजरात में लोग उनके बारे में बहुत कम जानते थे। 1937 में कुमार नाम की एक पत्रिका का एक अंक मुझे मिला। उसके संपादकीय में मैंने डॉ. आंबेडकर के जीवन के कुछ दिलचस्प किस्से पढ़े।”
उन्होंने लिखा, “इसके बाद उनकी जीवनी प्रकाशित करने की मेरी इच्छा बहुत बढ़ गई। मैंने अपने मित्र यूएम सोलंकी से आवश्यक जानकारी बटोरने का अनुरोध किया।”
“सोलंकी ने पूरी लगन से डॉ. आंबेडकर के जीवन के बारे में बहुमूल्य सामग्री एकत्र की। इसके बाद हमने एक पत्रिका के लेख में कुछ अंश भी प्रकाशित किए।”
जीवनी का प्रकाशन आसान नहीं था। इसे छपवाने के लिए जरूरी धन एक बड़ी बाधा थी। इसके लिए कांजीभाई बेचरदास दवे आगे आए और कुछ पैसे दान किए, लेकिन यह पर्याप्त नहीं था।
अंत में पुस्तक प्रकाशित कराने की पूरी जिम्मेदारी करशनदास लेउवा ने ली।
इसके परिणाम स्वरूप लेखक यूएम सोलंकी, दूरदर्शी करशनदास लेउवा और दानकर्ता कांजीभाई दवे की तस्वीरें इस पुस्तक में सम्मान के प्रतीक के रूप में छापी गईं।
अंत में डॉ.आंबेडकर की सभी शैक्षणिक योग्यताएं और डिग्रियों के साथ 28 अगस्त 1940 को डॉ. बीआर आंबेडकर, एस्क्वायर शीर्षक से यह पुस्तक प्रकाशित हुई।
पुस्तक का प्रकाशन अहमदाबाद के दरियापुर के महागुजरात दलित नवयुवक मंडल ने किया और इसे अहमदाबाद के धलावरगढ़ में स्थित मंसूर प्रिंटिंग प्रेस में छापा गया।
पुस्तक में जहां कीमत दर्ज की जाती है, वहां बस “अनमोल” लिखा था। उस समय इस पुस्तक की कोई कीमत निश्चित नहीं की गई।
साहित्यिक अर्थ में इस पुस्तक का प्रकाशन इसके विशाल ऐतिहासिक और भावनात्मक मूल्य को व्यक्त करता है।
जीवनी का पुनः प्रकाशन
डॉ. आंबेडकर की 1940 में लिखी गई जीवनी को 2023 में फिर से प्रकाशित किया गया है। इसके प्रकाशक डॉ. अमित प्रियदर्शी हैं।
जीवनी के नए संस्करण के लिए पुस्तक को गुजराती से अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है, जिससे यह पुस्तक ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाई जा सके।
अंग्रेजी अनुवाद के साथ-साथ मूल गुजराती भी है।
डॉ. अमित ज्योतिकर ने बताया, “हमने पुस्तक को उसी तरह से पुन: प्रकाशित किया है, जैसा कि वह मूल संस्करण में थी। हमने मूल व्याकरण संबंधी त्रुटियों और भाषा को भी बरकरार रखा है। यह केवल एक पुस्तक नहीं है- यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है।”
डॉ. अमित ज्योतिकर ने कहा कि हम चाहते हैं कि दुनिया को पता चले कि डॉ.आंबेडकर की पहली जीवनी गुजराती में थी।
क्या है इस पुस्तक में ?
यह पुस्तक 1940 में लिखी गई थी और इसके प्रकाशन के 16 साल बाद तक डॉ. आंबेडकर जीवित रहे।
इस दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण आंदोलनों का नेतृत्व किया और भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने में मुख्य भमिका निभाई और अंत में बौद्ध धर्म अपना लिया।
इसके बाद की घटनाओं को किताब में शामिल नहीं किया गया है, लेकिन इससे इसका महत्व कम नहीं होता है। यह डॉ. आंबेडकर के शुरुआती जीवन और सक्रियता के कई अज्ञात पहलुओं से अवगत कराती है।
पुस्तक का महत्व इससे ही समझा जा सकता है कि इसकी शुरुआत में नासिक में हुए ऐतिहासिक येवला अधिवेशन का वर्णन है।
यहां आंबेडकर ने बहुत ही साहसिक घोषणा की थी, “मैं हिंदू के रूप में पैदा हुआ हूँ, लेकिन मैं हिंदू के रूप में नहीं मरूँगा।”
उन्होंने औपचारिक रूप से 1965 में नागपुर में बौद्ध धर्म अपना लिया था, लेकिन इस शुरुआती बयान ने उनके आध्यात्मिक और वैचारिक परिवर्तन की शुरुआत को चिह्नित किया।
किताब में लाहौर की ऐतिहासिक घटना को भी शामिल किया गया है। यहां आंबेडकर को जाति पर बोलने के लिए जात-पात तोड़क मंडल ने आमंत्रित किया था। उनका भाषण पढ़ने के बाद आयोजकों ने इसे बहुत रेडिकल पाया और उनका निमंत्रण रद्द कर दिया। इस कारण आंबेडकर भाषण नहीं दे सके।
इसे बाद में ‘जाति का विनाश’ नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया। इस समय यह दुनिया भर में जातिवाद की एक शक्तिशाली आलोचना की पुस्तक बनी हुई है।