जयशंकर प्रसाद – JaiShankar Prasad 

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छायावाद युग के चार कवियों में से एक प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद, हिन्दी काव्य में एक तरह से छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ीबोली के काव्य में न केवल कामनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई, बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई और कामायनी तक पहुँचकर वह काव्य प्रेरक शक्तिकाव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गया।

जयशंकर प्रसाद जीवन परिचय – JaiShankar Prasad Biography

जन्म30 जनवरी 1890, बनारस
उल्लेखनीय कार्यकामायनी
पेशाकवि, नाटककार, लेखक
पितादेवकी प्रसाद
मृत्यु15 नवंबर 1937, बनारस

जीवन – Life

जयशंकर प्रसाद का जन्म माघ शुक्ल दशमी, संवत्‌ 1946 वि॰ तदनुसार 30 जनवरी 1890 ई॰ दिन-गुरुवार को काशी में हुआ। प्रसाद संपन्न व्यापारिक घराने से थे और उनका परिवार संपन्नता में केवल काशी नरेश से ही पीछे था। पिता और बड़े भाई की असामयिक मृत्यु के कारण उन्हें आठवीं कक्षा में ही विद्यालय छोड़कर व्यवसाय में लगना पड़ा। उनकी ज्ञान वृद्धि फिर स्वाध्याय से हुई। उन्होंने घर पर रहकर ही हिंदी, संस्कृत एवं फ़ारसी भाषा एवं साहित्य का अध्ययन शुरू किया, साथ ही वैदिक वांग्मय और भारतीय दर्शन का भी ज्ञान अर्जित किया। वह बचपन से ही प्रतिभा-संपन्न थे। आठ-नौ वर्ष की आयु में अमरकोश और लघु कौमुदी कंठस्थ कर लिया था जबकि ‘कलाधर’ उपनाम से कवित्त और सवैये भी लिखने लगे थे।

साहित्यिक परिचय – Literary Introduction  

प्रसाद का सौन्दर्य-बोध इस बात की पुष्टि करता है की छायावादी काव्य स्थूल के प्रति स्थूल का विद्रोह हैसौंदर्य दर्शन और शृंगारिकता, स्वानुभूति, जड़ चेतन संबंध और आध्यात्मिक दर्शन, नारी की महत्ता, मानवीयता, प्राकृतिक अवयव, चित्रात्मकता आदि उनकी प्रमुख काव्य-प्रवृत्तियाँ हैं। उनकी भाषा तत्समपरक और संस्कृतनिष्ठ है। वैयक्तिकता, भावात्मकता, संगीतात्मकता, कोमलता, ध्वन्यात्मकता, नाद-सौंदर्य जैसे गीति शैली के सभी तत्त्व उनके काव्य में मौजूद हैं। उन्होंने प्रबंध और मुक्तक दोनों शैलियों का प्रयोग किया है जबकि शब्दों का अधिकाधिक मात्रा में लाक्षणिक प्रयोग, सूक्ष्म प्रतीक योजना, ध्वन्यात्मक शब्दों के प्रयोग, सतर्क शब्द चयन, वर्णप्रियता, प्रकृति का सूक्ष्मातिसूक्ष्म निरीक्षण, अमूर्त उपमान योजना उनके द्वारा किए गए नए प्रयोग थे।

कविता – Poem

प्रसाद जी की खड़ीबोली की स्फुट कविताओं का प्रथम संग्रह ‘कानन कुसुम’ है। इसमें सन 1909 से लेकर 1917 तक की कविताएँ संगृहीत हैं। प्रायः सभी कविताएँ पहले ‘इन्दु’ में प्रकाशित हो चुकी थीं। यहाँ तक की कविताएँ प्रसाद जी के प्रारंभिक दौर की कविताएँ हैं, जिनमें काव्य-विकास की अपेक्षा विकास के संकेत ही अधिक उपस्थापित हो पाये हैं।प्रसाद की प्रथम छायावादी कविता प्रथम प्रभात भी प्रकाशित हुई थी। प्रसाद जी की गीतात्मक सृष्टि के शिखर ‘लहर’ का प्रकाशन 1935 ई॰ में हुआ। इस संग्रह में 1930 से 1934 ई॰ तक की रचनाएँ संकलित की गयीं।  प्रसाद जी के काव्य-शिल्प के प्रति असंतोष व्यक्त करने के बावजूद ‘लहर’ के सम्बन्ध में सुमित्रानंदन पंत ने ‘छायावाद : पुनर्मूल्यांकन’ नामक पुस्तक में लिखा है “लहर के प्रगीतों में गाम्भीर्य, मार्मिक अनुभूति तथा बुद्ध की करुणा का भी प्रभाव है। प्रसाद जी का भावजगत ‘झरना’ की प्रेम-व्याकुलता तथा चंचल भावुकता से बाहर निकलकर इसमें उनकी व्यापक जीवनानुभूति को अधिक सबल संगठित अभिव्यक्ति दे सका है।”

कहानी –Story

सन् 1912 में इंदु पत्रिका में प्रसाद जी की पहली कहानी ‘ग्राम’ प्रकाशित हुई, छायावादी और आदर्शवादी माने जाने वाले जय शंकर प्रसाद की पहली कहानी ‘ग्राम’ यथार्थवादी है, यदपि यह हिंदी की प्रथम कहानी नहीं है परंतु इसे हिंदी की ‘आधुनिक कहानी’ कहा गया है। प्रसाद द्वारा लिखी गई कुल कहानियाँ बहत्तर बताई जाती हैं। ‘चित्राधार’ में तो कथा-प्रबन्ध के रूप में पाँच और रचनाएँ भी संकलित हैं। प्रसाद जी मानते हैं की छोटी छोटी आख्यायिका में किसी घटना का पूर्ण चित्रण नहीं किया जा सकता। उसकी यह अपूर्णता कलात्मक रूप से उसकी सबलता ही बन जाती है क्योंकि वह मानव-हृदय को अर्थ के विभिन्न आयामों की ओर प्रेरित कर जाती है प्रसाद जी के शब्दों में “…कल्पना के विस्तृत कानन में छोड़कर उसे घूमने का अवकाश देती है जिसमें पाठकों को विस्तृत आनन्द मिलता है।”

उपन्यास – Novel

प्रसाद जी ने तीन उपन्यास लिखे हैं : कंकाल, तितली और इरावती (अपूर्ण)। ‘कंकाल’ के प्रकाशित होने पर प्रसाद जी के ऐतिहासिक नाटकों से नाराज रहने वाले प्रेमचन्द ने अत्यंत प्रसन्नता व्यक्त की थी तथा इसकी समीक्षा करते हुए ‘हंस’ के नवंबर 1930 के अंक में लिखा था :

“यह ‘प्रसाद’ जी का पहला ही उपन्यास है, पर आज हिंदी में बहुत कम ऐसे उपन्यास हैं, जो इसके सामने रक्खे जा सकें।

प्रेमचंद

नाटक – Play

प्रसाद जी ने आठ एतिहासिक, तीन पौराणिक और दो भावात्मक, कुल तेरह नाटकों की रचना की। ‘कामना’ और ‘एक घूँट’ को छोड़कर ये नाटक मूलत: इतिहास पर आधृत हैं। इनमें महाभारत से लेकर हर्ष के समय तक के इतिहास से सामग्री ली गयी है।

प्रसाद जी ने जिस समय में नाटक रचने शुरू किए उस समाज भारतेन्दु के द्वारा विकसित हिंदी रंगमंच की स्वतंत्र चेतन क्रमशः क्षीण हो चुकी थी।

वैचारिक रूप से प्रसाद जी के ऐतिहासिक नाटक के पात्रों को लेकर एक समय प्रेमचन्द एवं पं॰ लक्ष्मीनारायण मिश्र जैसे लेखकों ने भी अपनी निजी मान्यता एवं आरंभिक उत्साह के कारण ‘गड़े मुर्दे उखाड़ने’ अर्थात् सामन्ती संस्कारों को पुनरुज्जीवित करने के आरोप लगाये थे, जबकि ‘स्कन्दगुप्त’ में देवसेना बड़े सरल शब्दों में गा रही थी :

“देश की दुर्दशा निहारोगे
डूबते को कभी उबारोगे
हारते ही रहे न है कुछ अब
दाँव पर आपको न हारोगे
कुछ करोगे कि बस सदा रोकर
दीन हो दैव को पुकारोगे
सो रहे तुम, न भाग्य सोता है
आप बिगड़ी तुम्हीं सँवारोगे?
दीन जीवन बिता रहे अब तक
क्या हुए जा रहे, विचारोगे ?”

जयशंकर प्रसाद

और पर्णदत्त भीख भी माँगता है तो भीख में जन्मभूमि के लिए प्राण उत्सर्ग कर सकने वाले वीरों को माँगता है। इसलिए डॉ॰ रामविलास शर्मा स्पष्ट शब्दों में कहते हैं :

‘स्कन्दगुप्त’ में प्रसाद जी ने दिखाया है कि हूणों के आक्रमण से त्रस्त और बिखरी हुई जनता में फिर से साहस-संचार करके स्कन्दगुप्त और उसके साथियों ने हूणों को समरभूमि में पराजित किया और उन्हें सिन्धु पार खदेड़ दिया। ब्रिटिश साम्राज्य से आक्रान्त देश में यह नाटक लिखकर प्रसाद जी ने सामयिक राजनीति की भी एक गुत्थी सुलझायी थी।

 प्रसाद जी के नाटकों पर अभिनय न होने का आरोप लगाया जाता है, कहा जाता है की परसाद के नाटक रंगमंच के हिसाब से नहीं लिखे जाते हैं। इनमें काव्यतत्त्व की प्रधानता, स्वगत कथनों का विस्तार, गायन का बीच-बीच में प्रयोग तथा दृश्यों का त्रुटिपूर्ण संयोजन है। किंतु उनके अनेक नाटक सफलतापूर्वक अभिनीत हो चुके हैं जबकि प्रसाद जी कहते हैं कि:

“नाटक के लिए रंगमंच होना चाहिए, रंगमंच के लिए नाटक नहीं”। 

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