देश के आज़ाद होने के बाद देश में संविधान बनने की बातें सामने आ रही थी, जिसमें लिखा जाएगा नागरिक के अधिकारों के बारे में, उनके हकों के बारे में, लेकिन संविधान को लेकर लोगों के बीच मंडराते सवालों ने जब जबान पकड़ी तब पहला सवाल यही निकल होगा कि इस सभा में कौन-कौन होंगे?
जाहीर है देश का संविधान बनाने के समय पितृसत्तात्मकता का असर उतना नहीं रहा, देश के संचाल में लैंगिकता का आड़े आना यूं भी कोई ठीक संकेत नहीं है खासकर जब बात देश के संविधान लिखने की हो। इसीलिए संविधान सभा के गठन में कुल 299 सदस्यों की सभा बनी जिसमें केवल 15 महिलाओं का नाम सामने आये।
इन 15 महिलाओं को सभा में जगह देकर भारत में पितृसत्तात्मक बंधन महिलाओं को घर में कैद करने वाले रीति रिवाजों को खुले तौर पर चुनौती दी, जिससे साफ हुआ कि संविधान में महिलाओं को पुरुषों के बराबर के हक होंगे
उन 15 महिलाओं को संक्षिप्त रूप से जानने की कोशिश आगे रहेगी।
सुचेता कृपलानी (1908 -1974)
वर्ष 1946 में बंगाल के नोआखली (विभाजन के बाद बांग्लादेश में) में हुई हिंसा के बाद चलाए गए राहत कार्य में सुचेता कृपलानी की अहम भूमिका मानी जाती है। साल 1963 में भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री (उत्तर प्रदेश की) बनने वाली सुचेता कृपलानी गांधीवादी थीं और भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भूमिगत गतिविधियों में उनका ख़ासा योगदान रहा।
वे यूनिफ़ॉर्म कोर्ट बिल की पक्षधर थी, जिसमें हर धार्मिक समुदाय के लिए शादी, विरासत, तलाक, बच्चा गोद लेने के लिए एक कानून की बात की गई है। सुचेता ने लोकसभा में पेश हुए हिंदू मैरिज बिल का समर्थन किया था, लेकिन साथ ही चेतावनी भी दी थी कि इस बिल से महिलाओं की स्थिति में बदलाव नहीं आ सकता।
उन्होंने वर्ष 1959 में आए तिब्बत शरणार्थियों के लिए राहत कार्य भी किया, हिन्दू-सिख शरणार्थी जो पाकिस्तान से आए उनके लिए भी संसद में आवाज उठाई।
सरोजिनी नायडू (1879-1949)
हैदराबाद में जन्मी, सरोजिनी नायडू भारत में कोकिला के तौर पर मशहूर थीं, वे कवियत्री, स्वतंत्रता सेनानी और स्त्री अधिकार कार्यकर्ता के रूप में जानी जाती थी। उन्होंने अपनी पसंद से डॉ. गोविंदराजुलु नायडू से साल 1898 में शादी की. यह उस वक़्त चुनिंदा अंतरजातीय और अंतर क्षेत्रीय शादियों में एक थी।
सरोजिनी नायडू काँग्रेस की प्रथम महिला अध्यक्ष हुई, गांधी के बेहद करीबी रही उनसे गांधी जी का दोस्ताना बेहद अज़ीज़ रहा। सरोजिनी के अंदाज़-ए-बयाँ की तारीफ़ सभी करते थे। वो चाहती थीं कि महिलाओं को वोट देने का हक़ मिले। सरोजिनी नायडू स्वराज की हिमायती थीं।
वे संविधान सभा में बिहार से चुनी गई थी, हिन्दू मुस्लिम एकता की वे पक्षधर रही इस बात के गवाह उनकेसंविधान सभा के भाषण भी रहे हैं
विजय लक्ष्मी पंडित (1900-1990)
विजय लक्ष्मी पंडित भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु की बहन थीं। गांधीजी से प्रभावित होकर उन्होंने भी आज़ादी के लिए आंदोलनों में भाग लेना आरम्भ कर दिया। वह हर आन्दोलन में आगे रहतीं, जेल जातीं, रिहा होतीं और फिर आन्दोलन में जुट जातीं
1937 में वे संयुक्त प्रांत की प्रांतीय विधानसभा के लिए निर्वाचित हुईं, स्थानीय स्वशासन और सार्वजनिक स्वास्थ्य मंत्री के पद पर नियुक्त की गईं। 1946-50 तक भारतीय संविधान सभा की सदस्य चुनी गई। 1953 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की अध्यक्ष बनने वाली विजय लक्ष्मी पंडित विश्व की पहली महिला थीं। वे राज्यपाल और राजदूत जैसे कई महत्त्वपूर्ण पदों पर भी रह चुकी हैं।
बेगम क़ुदसिया एज़ाज़ रसूल(1908-2001)
बात 1937 की है। वे संयुक्त प्रांत विधानसभा का चुनाव लड़ रही थीं। मौलानाओं ने उनके ख़िलाफ़ फ़तवा दिया। फ़तवा था- जो स्त्री पर्दा नहीं करती है, उन्हें वोट देना ग़ैर इस्लामी है। यह स्त्री कोई और नहीं बेगम क़ुदसिया एज़ाज़ रसूल थीं।
उन्होंने पर्दा त्याग दिया था. यही नहीं, एक बार उन्होंने अपने पति नवाब एज़ाज़ रसूल से कहा था, “मैं उन लोगों के आमंत्रण मंज़ूर नहीं करूँगी, जो अपने घर की स्त्रियों को पर्दे में रखते हैं. यह शर्त हिंदुओं और मुसलमानों पर एक जैसी लागू होगी.”
लंबे समय तक मुस्लिम लीग से जुड़े रहने के बाद वे काँग्रेस से जुड़ गई। बंटवारे के बाद पाकिस्तान न जाकर वे भारत में ही रुकी।
वे महिला शिक्षा पर जोर देती थी, साथ ही उनका मानना था की बच्चों को शिक्षा उनकी मातृभाषा में देना चाहिए। वे स्त्री पुरुष समानता की भी हिमायती थी। वह लंबे समय तक ऑल इंडिया वीमेंस हॉकी एसोसिएशन की अध्यक्ष रहीं।
हंसा मेहता (1897-1995)
हंसा मेहता सरोजिनी नायडू को अपना मार्गदर्शक मानती थीं। गुजरात में जन्मीं हंसा मेहता एक महिलावादी, समाज सुधारक और समानता की पैरोकार थीं। इसका उदाहरण मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के आयोग (UNHCR) में उनकी भूमिका से मिलता है।
मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (UDHR) के अनुच्छेद 1 कहा गया था कि सभी पुरुष स्वतंत्र और समान पैदा होते हैं। उन्होंने इस भाषा का विरोध किया और इस वाक्य के इस्तेमाल पर ज़ोर दिया कि “सभी मनुष्य स्वतंत्र और समान पैदा होते हैं।”
शुरुआत में वे महिलाओं के लिए काम कर रही थी, साबरमती में जब महात्मा गांधी से मिली और फिर वे स्वतंत्रता आंदोलन से भी जुड़ गई।
वे संविधान सभा में मौलिक अधिकारों के लिए बनी उप सभा की भी सदस्य रही।
कमला चौधरी (1908 -1970)
वह उन महिला समाज-सुधारकों और लेखिकाओं में से एक थीं, जिन्होंनेेे महिलाओं के जीवन स्तर में सुधार लाने के लिए सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक स्तर पर प्रयास किया।
साथ ही 80 साल पहले उन्होंने मेंटल हेल्थ की अहमियत के बारे में लिखा, जिसे हाल के वर्षों में ही समाज ने जाना और समझा है। उन्होंने पंजाब विश्वविधालय से हिंदी साहित्य में रत्न और प्रभाकर की उपाधि धारण की। उनके पिता राय मनमोहन दयाल डिप्टी कलेक्टर थे। उनके नाना 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में लखनऊ में स्वतंत्र अवध सेना के कमांडर थे।
कमला चौधरी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के 54 वें सत्र के दौरान वरिष्ठ उपाध्यक्ष के रूप में कार्यरत रही। वह भारत की संविधान सभा की एक निर्वाचित सदस्य थीं और संविधान को अपनाने के बाद 1952 तक सदस्य रहीं । वह उत्तर प्रदेश राज्य समाज कल्याण सलाहकार बोर्ड की सदस्य भी थीं।
पूर्णिमा बनर्जी (1911-1951)
आज़ादी के आंदोलन की सक्रिय भागीदार, अरुणा आसफ़ अली की बहन पूर्णिमा बनर्जी जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी की बेहद क़रीबी थीं। पूर्णिमा का जन्म पूर्वी बंगाल यानी आज के बांग्लादेश के बारिसाल में हुआ था।
मूल अधिकार और स्कूलों में धार्मिक शिक्षा देने पर उनकी राय अलग थी।
उनका कहना था कि सरकारी मदद से चलने वाले शैक्षणिक संस्थानों में सभी धर्मों के बारे में बताना चाहिए। क्योंकि इससे विद्यार्थियों के सोच-समझ के दायरे का विस्तार होगा। यही नहीं, उनका मानना था कि सरकार की मदद से चलने वाले किसी भी शैक्षणिक संस्थान में अल्पसंख्यक समुदायों के साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए
मालती चौधरी (1904-1998)
उन पर टैगोर और महात्मा गांधी दोनों का गहरा प्रभाव पड़ा। मालती चौधरी संविधान सभा के लिए उड़ीसा (ओडिशा) से चुन कर आई थीं। वे कांग्रेस के आंदोलन में सक्रिय भागीदार थीं. उनकी वजह से आज़ादी के आंदोलन में उड़ीसा में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी।
संविधान सभा में वे थोड़े वक़्त ही रहीं. आज़ादी के ठीक पहले नोआखली में दंगा हुआ था.
गांधी जी वहाँ अमन के लिए गाँव-गाँव दौरे कर रहे थे. मालती चौधरी ने संविधान सभा से इस्तीफ़ा दिया और गांधी जी के साथ नोआखली के दंगा प्रभावित इलाकों में काम करने के लिए चली गईं.
इस कारण गांधी जी उन्हें ‘तूफ़ानी’ कहते थे.
लीला रॉय (1900 –1970)
वे मूल रूप से सिलहट (अभी बांग्लादेश में है) से थीं। कॉलेज में पढ़ाई के दौरान उन्होंने असहयोग आंदोलन के बारे में जाना था। उन्होंने उत्तर बंगाल में सुभाषचंद्र बोस की पहल पर बनी बाढ़ राहत समिति के लिए भी काम किया।
साथ ही उन्होंने 12 दोस्तों के साथ महिला एसोसिएशन, दीपाली संघ बनाया. इसका काम लड़कियों को शिक्षित करना था. इसके बाद वे श्री संघ में शामिल हो गईं।
इस संगठन में महिलाओं को बम बनाना, हथियारों को एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाना और पर्चे बाँटने का काम दिया गया। दीपाली संघ ने अपना मुखपत्र जयश्री पत्रिका निकाला, जिसे नाम रबिंद्रनाथ टेगौर ने दिया था।
लेकिन फिर श्री संघ और दीपाली संघ पर पाबंदी लग गई। लीला को जेल में डाल दिया गया। रिहाई के बाद लीला की मुलाक़ात सुभाषचंद्र बोस से हुई और वे उनकी पार्टी फ़ॉरवर्ड ब्लॉक में शामिल हो गईं।
दुर्गाबाई देशमुख (1909-1981)
गांधी ने देवदासी प्रथा को ख़त्म करने और मुसलमान महिलाओं के लिए सुधार की बात कही। दुर्गा की असरदार हिंदी को देखते हुए गांधी ने आयोजकों से आंध्र प्रदेश और मद्रास में उन्हें ही अनुवादक रखने को कहा।
दुर्गा उसूलों की इतनी पक्की थी कि उन्होंने एक प्रदर्शनी में जवाहरलाल नेहरू के टिकट न होने पर उन्हें एंट्री देने से मना कर दिया था।
संविधान सभा का सदस्य बनने के बाद उन्हें स्टीयरिंग कमेटी का सदस्य बनाया गया और वल्लभभाई पटेल ने उन्हें प्रस्तावित संशोधनों की समीक्षा करने की ज़िम्मेदारी दी थी।
साथ ही स्पीकर की ग़ैर मौजूदगी में वे सदन की कार्यवाही चलाने के लिए अध्यक्षता कर सकती थीं। वे हिंदू कोड बिल के लिए बनी चयन समिति की सदस्य थीं।
रेणुका रे (1904-1997)
पबना (अभी बांग्लादेश में) में जन्मीं रेणुका की मुलाक़ात गांधी जी से कोलकाता में एक रिश्तेदार के घर पर हुई। वे अपनी सहेली के साथ कॉलेज छोड़ स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गईं और गांधी ने उन्हें घर-घर जाकर चंदा इकट्ठा करने को कहा।
रेणुका ने गांधीजी की कई बैठकों का आयोजन किया, जिनमें महिलाएँ भी शामिल हुईं। लेकिन फिर वे लंदन पढ़ाई करने चली गईं। संविधान सभा का सदस्य बनने के बाद रेणुका ने हिंदू कोड बिल, देवदासी प्रथा, संपत्ति का अधिकार आदि पर हुई बहस में भाग लिया। साथ ही विधानसभा और संसद में महिलाओं के आरक्षण का विरोध किया।
उनका तर्क था कि आरक्षण महिलाओं के विकास में बाधा बनेगा। वे विभाजन के बाद शरणार्थियो के लिए भी काम करती रहीं।
राजकुमारी अमृत कौर (1889 -1964)
शाही परिवार में जन्मीं अमृत कौर ने अपने जीवनकाल के तीन दशक में महात्मा गांधी के सहयोगी के तौर पर काम किया। उन पर गांधीवादी विचारधारा की इतनी गहरी छाप पड़ी कि वे साबरमती आश्रम भी गईं। वे ऑल इंडिया वर्किंग कॉन्फ्रेंस के संस्थापक सदस्यों में से एक थीं।
अरूणा आसफ़ अली ने अमृत पर अपनी किताब में लिखा था कि कांग्रेस कार्यकारी कमेटी की बैठक में किसी महिला को शामिल न करने को लेकर अमृत ने जवाहरलाल नेहरू की आलोचना की थी, जिसके बाद सरोजिनी नायडू को बैठक में शामिल किया गया था।
वे नमक सत्याग्रह को लेकर जेल गईं और भारत छोड़ो आंदोलन में भी भाग लिया। वे संविधान सभा की सदस्य बनीं, जहाँ उन्होंने यूसीसी लाने की बात कही।
अमृत कौर नेहरू कैबिनेट में स्वास्थ्य मंत्री बनीं। स्वास्थ्य मंत्री रहते हुए उन्होंने मलेरिया और कुष्ठ रोग जैसी अन्य बीमारियों को लेकर पायलट कार्यक्रम चलाए।
भारत में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान(एम्स) को स्थापित करने का बिल अमृत कौर ही लाईं थीं।
एनी मैसकेरीन (1902-1963)
एनी मैसकेरीन त्रावणकोर और कोचिन रियासत से संविधान सभा की सदस्य बनी थीं। कुछ समय बाद वे त्रावणकोर वापस लौटीं। उन्होंने वहाँ सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू किया।
वे आज़ादी के आंदोलन की भागीदार बनीं और जेल भी गईं। उनका कहना था- हम लोकतंत्र के सिद्धांत बना रहे हैं। यह सिद्धांत सिर्फ़ चुनाव के लिए नहीं बल्कि यह आने वाली पीढ़ियों के लिए हैं। राष्ट्र के लिए है।
वे हिंदू कोड बिल के लिए बनी समिति की सदस्य भी थीं। साल 1951 में वह केरल के तिरुअनंतपुरम से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में सांसद चुनी गईं थीं।
अम्मू स्वामीनाथन (1894-1978)
अम्मू स्वतंत्रता आंदोलन के कई नेताओं के संपर्क में आईं और महिलाओं के मुद्दे पर काम करने लगीं।
वे वीमेंस इंडियन एसोसिएशन और ऑल इंडियन वीमेंस कॉन्फ़्रेंस से जुड़ी थीं। अम्मू साल 1946 में मद्रास से संविधान सभा के लिए चुनी गईं।
संविधान सभा में उनके भाषण का एक हिस्सा, “यह संविधान 40 करोड़ लोगों के सपनों का पूरा होना है। मैं जानती हूँ कि संविधान हमें मौलिक अधिकार, समान दर्ज़ा, वयस्क मताधिकार देता है. छूआछूत और इस तरह की दूसरी चीज़ों को हटाने की बात करता है। इन सबके ख़िलाफ़ हम सालों से लड़ रहे थे। हालाँकि, अगर हमें इस देश को ख़ुशहाल और समृद्ध बनाना है, तो कागज़ पर दिखने वाली ये सारी चीज़ें काफ़ी नहीं हैं। हमें यह देखना होगा कि संविधान में कागज़ पर लिखे ये विचार और आदर्श इस देश के लोगों द्वारा लागू किए जाएँ। “
दक्षयानी वेलायुधन (1912-1978)
दक्षयानी वेलायुधन संविधान सभा की इकलौती महिला दलित सदस्य थीं। उनका जन्म केरल और उस वक़्त के कोचीन राज्य में हुआ था।
दक्षयानी के परिवार ने इस रिवाज को चुनौती दी। ऐसा माना जाता है कि वे न सिर्फ़ अपने समुदाय की, बल्कि दलितों में भी पहली महिला थीं, जिन्होंने कॉलेज की पढ़ाई की
संविधान सभा में बहस के दौरान उन्होंने छुआछूत, आरक्षण, हिंदू-मुसलमान समस्या पर खुलकर अपनी बात रखी।
उन्होंने एक भाषण में कहा था कि भारतीय गणराज्य में जाति या समुदाय के आधार पर किसी तरह की कोई रुकावट नहीं होगी।
यही नहीं, वे जाति, समुदाय के आधार पर अलग चुनाव क्षेत्र के ख़िलाफ़ थीं. वे ताउम्र दलितों और वंचितों के हक़ के लिए आवाज़ उठाती रहीं।
संदर्भ – सौजन्य- एंजलिका अरिबम और अकाश सत्यावलि की किताब 'दि फ़िफ़्टीन: दि लाइव्स एंड टाइम्स ऑफ़ द वीमेन इन इंडियाज़ कॉन्स्टिट्युएंट असेंबली'
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बीबीसी