आखिर रम का नाम कैसे पड़ा ओल्ड मंक?

आखिर रम का नाम कैसे पड़ा ओल्ड मंक?
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ओल्ड मंक को कुछ लोग बूढ़ा साधु भी कहतें है। केवल माउथ पब्लिसिटी के बल पर ही ओल्ड मंक को नेशनल ड्रिंक का दर्जा मिला।

मध्यवर्गीय व्यक्ति भी ओल्ड मंक रम आसानी से खरीद सकता है। यह बाज़ार में बेहद कम कीमतों में उपलब्ध है। न सिर्फ मध्यवर्गीय व्यक्ति अपितु करोड़पति व्यक्ति पर भी इसका दबदबा कायम है। 1954 से लेकर आज तक ये वैसी की वैसी है। यह अभी भी दशकों पुराने एक ख़ास किस्म की खुरदरी बोतल में उपलब्ध है। प्रशंसकों के अनुसार इसमें मौजूद वनीला,  किशमिश और दूसरे मसालों का फ्लेवर ज़ुबान को सुकून देता है।

50 और 60  के दशक में जब लोगों के बीच हर्क्युलिस जैसे रम ब्रांड लोकप्रिय थे, उस दौरान भी ओल्ड मंक का दबदबा कायम था। इसकी उपलब्धता आर्मी की कैंटीन में भी थी। एक समय ऐसा भी था जब कोक के साथ ओल्ड मंक आर्डर करना बेहद आम था और जब रहीस व्यक्ति की महंगी पसंद मोल्ट्स के साथ ये ड्रिंक भी अपना रुतबा बरकरार रखे हुए थी। बीते कुछ दशकों से बड़ी कंपनियों के महंगे विज्ञापनों,  आक्रामक रणनीति और वाइट रम के बढ़ते प्रशंसकों के चलते इसकी मांग गिर गई। लेकिन पुराने प्रेमियों की ज़ुबान पर आज भी ओल्ड मंक का ज़ायका बरकरार है। 2019 के हुरून इंडियन लक्ज़री कंस्यूमर सर्वे के मुताबिक़ नेटवर्थ इंडियंस के बीच आज भी यह पहली पसंद है।

आखिर किसने दी दुनिया को ओल्ड मंक

2018 में जब मोहन मीकिन लिमिटेड के तत्कालीन चेयरमैन ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) कपिल मोहन का निधन हुआ तब उनकी श्रद्धांजलि के दौरान उन्हें लोगों ने ओल्ड मंक का जनक माना।  जबकि ऐसा नहीं है। ओल्ड मंक के वास्तविक जनक कर्नल वेद रतन मोहन थे। बता दें कि वेद रतन मोहन राजयसभा सांसद रह चुके हैं। इसके अलावा वह दो बार लखनऊ के मेयर भी रह चुके हैं। वह फिल्म सेंसर बोर्ड के चेयरमैन भी रह चुके है। उन्होंने 1954  में वह इसे दुनिया के सामने लाए। इससे पहले वह यूरोप गए। वह वहाँ के बेनेडिक्टिन मंकस की जीवनशैली और उनके शराब बनाने के तरीके से खासा प्रभावित थे। 

ओल्ड मंक की प्रेरणा का स्त्रोत

बेनेडिक्टिन संतों को सम्मान देने के लिए ही वेद ने इस रम का नाम ओल्ड मंक रखा। ज्ञान शंकर की किताब ओल्ड मंक में इससे सम्बंधित कई जानकारियाँ मिलती है। बेनेडिक्टिन इतालियन ईसाई संत संत बेनेडिक्ट के अनुयायी हैं। इन्होने कुछ नियम बनाए। जिनका नाम ‘रूल ऑफ़ सेंट बेनेडिक्ट’ रखा गया था यह बाद में इंग्लैंड,  जर्मनी,  डेनमार्क और फ़्रांस भी पहुँची और इनके साथ ही इनका शराब बनाने का अनूठा तरीका भी पहुंचा। मध्य युग में बीयर को पोषण का मुख्य स्त्रोत माना जाता था। ऐसे में इन संतों का बीयर बनाने का तरीका काफी मशहूर हुआ। आज यूरोप की बीयर का सेवन पूरा विश्व करता है।  यूरोप को इस क्षेत्र में पहचान दिलाने का श्रेय इन संतों को ही जाता है। 

ओल्ड मंक का बोतल क्यों है ख़ास

ऐसा कहा जाता है कर्नल को ओल्ड पार स्कॉच विस्की की बोतल बेहद पसंद थी। यह शराब कोलंबिया में काफी बिकती है जिसका मालिकाना हक अभी डियाजियो नामक शराब कंपनी के पास है। मोहन ने इस रम के लिए भी ऐसी ही बोतल इस्तेमाल करने का सोचा। इस बोतल का आकार ज़रा हट के था इसलिए उस समय इस तरह की बोतल में रम की पैकिंग करना थोड़ा मुश्किल था। ओल्ड पार के निर्माताओं ने बोतल के मुद्दे पर मीकिन को कोर्ट के चक्कर लगवाए।  बाद में यह तय किया गया कि ओल्ड पार गहरे रंग के बोतल में शराब बेचना जारी रखेगी और ओल्ड मंक ट्रांसपेरेंट शीशे वाली बोतल में। यह शराब आज भी इसी बोतल में बिकती है। इस बोतल पर एक गोलमटोल शख्स की तस्वीर छपी है। यह शख्स एच जी मीकिन ही है।

एक अँगरेज़ से खरीदी गई थी यह शराब कम्पनी

1855 में एक अँगरेज़ एडवर्ड अब्राहम डायर ने हिमाचल प्रदेश स्थित कसौली में एक बीयर कारखाना लगाया। जिसका उद्देश्य भारत में मौजूद ब्रिटिश सैनिकों के लिए सस्ती और अच्छी बीयर उपलब्ध कराना था। पूरे भारत की तुलना में बीयर बनाने के लिए सबसे बेहतरीन पानी यही उपलब्ध था। यहाँ उन्होंने लायन बीयर तैयार की जो काफी प्रसिद्ध हुई। एडवर्ड उस जनरल डायर के पिता थे जिन्होंने जालियाँवाला बाग हत्याकांड करवाया था। आज़ादी के बाद मीकिन ने एडवर्ड से उनका कारखाना खरीद लिया था। इसे नाम दिया गया डायर ‘डायर मीकिन ब्रूरीज़ लिमिटेड’। बाद में नरेंद्र मोहन ने इसका अधिग्रहण किया। जनरल डायर के दाग को हटाने के लिए इसका नाम ‘मोहन मीकिन’  रखा गया। इस वक्त इस कंपनी की बागडोर हेमंत मोहन और विनय मोहन के पास है।

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