आदिपुरुष फ़िल्म नहीं, एक क्रूर मज़ाक है

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आदिपुरुष फ़िल्म नहीं है यह एक क्रूर मज़ाक़ हैl हमारी पीढ़ी रामानन्द सागर द्वारा निर्देशित रामायण देखकर बड़ी हुई,हमने पात्रों को पूजा है, हमने दृश्यों को हृदय में रख कर चूमा है, हमने पवित्र संवादों पर आँसू बहाया है, हमने राम को नहीं देखा, सीता, लक्ष्मण, हनुमान जी को नहीं देखा लेकिन उनके आदर्शों को रामायण के बहाने महसूस किया हैl

रामायण में हमने देखा ही नहीं आत्मसात् किया कि राम बाहुबली अवश्य थे लेकिन शक्ति का प्रदर्शन नहीं करते थे, सीता जी पतिव्रता थीं तो यह उनके हाव-भाव, वेश-भूषा हर प्रकार से परिलक्षित होता थाl लक्ष्मण के व्यक्तित्व में सहजता थी, हनुमान जी भक्त, प्रकृति प्रेमी और बालमन धारण किए हुए थेl सब की बात छोड़ दें तो रावण अहंकारी था लेकिन भाषाई मर्यादा उसने कभी नहीं तोड़ी और तो और उसका अट्टहास भी उसके घमंड का प्रदर्शन तो करता था लेकिन डरावना नहीं लगा l

इसके उलट आज का आदिपुरुष देखिए …यह आदिपुरुष उस रामायण के एक अंश की पूर्ति भी नहीं कर सकती तो इसे राम से क्यों जोड़ें? वैसे भी “आदिपुरुष” नाम का क्या मतलब राम तो आदर्श पुरुष थे, पुरुषों में उत्तम थे, क्योंकि साक्षात भगवान विष्णु राम के रूप में अवतरित हुए थे l

आदिपुरुष के डायरेक्टर ,संवाद लेखक और किरदारों का यह दलील देना कि यह फ़िल्म नई पीढ़ी को प्रेरित करेगी बेहद वाहियात हैl इसमें प्रेरणा नहीं है बल्कि निराशा है, इसमें आदर्शवाद नहीं है बल्कि धन कमाने की लालसा है, इसका उसका उद्देश्य धार्मिक नहीं है बल्कि तकनीकी के प्रयोग से अधर्मी लोगों को चमत्कृत करना हैl

संवाद की पवित्रता पर क्या बात करें? यह फ़िल्म तो केवल और केवल पैसे कमाने के उद्देश्य से बनाई गयी है जिसमें भारतीय बहुसंख्यक समाज के भावनाओं को तार-तार किया गया हैl फ़िल्म बनाने वाले ने कभी दर्शकों की भावनाओं को केंद्र में रखा ही नहीं, तुलसीदास और वाल्मीकि के प्रभु प्रेम को जानने की कोशिश ही नहीं की, इनकों न ही भारतीय सनातन संस्कृति की समझ है, न ऐतिहासिकता की, न ही प्रमाणों को माना गया और न ही तर्कों को रामानन्द सागर की तरह कसौटी पर कसा गयाl आस्था क्या चीज़ है,पता नहीं ये लोग परिचित हैं भी या नहीं, फिर राम के चरित्र को कैसे पर्दे पर उतारा सकते हैं, असम्भव हैl इसलिए ये नई पीढ़ी को कुछ सार्थक नहीं दे पाएँगेl राम के चरित्र को उतारने के लिए राम को समझना ज़रूरी है, राम का आशीर्वाद ज़रूरी हैl संवाद के साथ-साथ फ़िल्म में बहुत कुछ ठीक नहीं है, बात हर चीज़ की होनी चाहिए, जब हर चीज़ की बात होगी तो ज़िम्मेदार सिर्फ़ एक नहीं होगाl

आइए अब बात करते हैं दोषी कौन? सिर्फ़ मनोज मुंतशिर? हाँ मनोज मुंतशिर दोषी हैं क्योंकि उनकी कलम से यह घटिया संवाद निकला जो प्रभु राम के चरित्र को दिखाने वाली फ़िल्म का हिस्सा है? मनोज मुंतशिर दोषी हैं क्योंकि कुछ दिनों से संस्कृति और संस्कार का ढोल बजाते उन्हें अधिक देखा गयाl मनोज मुंतशिर दोषी हैं क्योंकि वो प्रभु राम के अनन्य भक्त तुलसीराम के अवध से आते हैं फिर भी बुद्धि शून्य हो गयी? मनोज मुंतशिर दोषी हैं क्योंकि सनातन धर्म के रक्षक ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी अपनी संस्कृति और संस्कार को मज़ाक़ का पात्र बनाया l

लेकिन मनोज शुक्ला मुंतशिर के साथ हम सब दोषी हैं ,हमने खुद सबको ढील दे रखी है कि हल्का-फुलका मज़ाक कर सकते हैं, हमने खुद रामलीला में और मूर्ति विसर्जन में चलते फिरते गानों पर झूमने की ढील दे रखी हैl फिर हम सब दोषी हुए!

मनोज के साथ-साथ इस फ़िल्म के डायरेक्टर ओम राउत और कलाकार भी उतने ही दोषी हैंl राम और सीता का अभिनय ,साधारण अभिनय नहीं हैl उनके आदर्शों क़ो जीना ही सच्चा अभिनय हैl क्या ये लोग ऐसा कर रहे हैं?

जब घटिया फ़िल्मांकन कराया जाएगा, पुराने सभी तथ्यों को दरकिनार करके आधुनिकता के नाम पर फ़िल्म से सिर्फ़ पैसा कमाने का प्लान बनाया जाएगा तो संवाद पर कौन ध्यान देगा? मनोज मुंतजीर सबसे ज़िम्मेदार हो सकते हैं लेकिन केवल वहीं ज़िम्मेदार नहीं हैं क्योंकि फिर भी इसमें प्रोड्यूसर और निर्देशक से हस्तक्षेप सबसे अधिक होता हैl

उसके साथ-साथ जब आर्टिफ़िशल इंटेलिजेन्स के पीछे घटिया अभिनय कराया जाएगा, जब आधुनिकतावाद हावी होगी तो क्या आप समझते हैं कि शुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिंदी युक्त संवाद लिखवाया जाएगाl जब तकनीकी, धार्मिकता पर भारी पड़ेगी तो पात्रों से सहजता की उम्मीद करना बेमानी है और ऐसी स्थिति में संवाद लेखक का विवेक शून्य हो जाए तो बड़ी बात नहींl हालाँकि मनोज शुक्ला मुंतजीर को इस बात की छूट नहीं है….

लेखक : विनोद पांडेय

मूल लेख : आदिपुरुष फ़िल्म नहीं, एक क्रूर मज़ाक़ है

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