हिमालय दिवस पर नौ सितंबर को देशभर में आठ सौ से ज्यादा स्थानों पर विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। हिमालय दिवस की इस वर्ष की थीम ‘हिमालय का विकास और इसकी दशा व दिशा’ निर्धारित की गई है, जिस पर विशेषज्ञ मंथन करेंगे। देहरादून में हिमालय दिवस सप्ताह का आयोजन होगा। इसके तहत विभिन्न संस्थानों में हिमालय से जुड़े तमाम विषयों पर चर्चा होगी।
हिमालय की पीड़ा समझने और निवारण के उपाय सुझाने के दृष्टिगत हिमालय दिवस की अवधारणा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हेस्को संस्था के संस्थापक पद्मभूषण डा अनिल प्रकाश जोशी ने उक्त जानकारी साझा की। उन्होंने कहा कि हिमालय दिवस पर उत्तर पूर्वी हिमालय से लेकर पश्चिमी हिमालय तक के राज्यों में गोष्ठियां आयोजित की जाएंगी। साथ ही आने वाले समय में हिमालय की विभिन्न समस्याओं को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार से हिमालय के लिए एक नई नीति बनाने का आग्रह किया जाएगा, जो वैज्ञानिक आधार पर होगी।
इन कार्यक्रमों में सभी वर्गों के लोग शामिल होंगे। प्रमुख राजनीतिक दलों के नेता और हिमालय के विकास में समर्पित संस्थाएं इन कार्यक्रमों में भाग लेंगे। उन्होंने कहा कि हिमालय लगातार आपदाओं से प्रभावित रहा है, लेकिन आपदाओं के साथ विकास की रणनीति तय करनी होगी। हमें यह भी देखना होगा कि हिमालय के विकास का ढांचा कैसा हो, ताकि आपदाओं से निपटा जा सके।
हिमालय दिवस की उत्पत्ति – Origin of Himalaya Day
हिमालय दिवस पहली बार 2010 में मनाया गया था, जिसकी शुरुआत प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा ने की थी, जो चिपको आंदोलन में अपने प्रयासों के लिए प्रसिद्ध हैं। हिमालय क्षेत्र के सामने आने वाले पर्यावरणीय मुद्दों की ओर ध्यान आकर्षित करने और इसके संरक्षण की वकालत करने के लिए इस दिवस की स्थापना की गई थी। उत्तराखंड सरकार ने हिमालय की रक्षा के लिए सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता का समर्थन करते हुए 2014 में आधिकारिक तौर पर इस दिवस को मान्यता दी।
तिथि का महत्व – importance of date
9 सितंबर को हिमालय दिवस के लिए चिपको आंदोलन की शुरुआत का सम्मान करने के लिए चुना गया था, जो 1970 के दशक की शुरुआत में शुरू हुआ था। चिपको आंदोलन, जिसमें ग्रामीण, विशेष रूप से महिलाएं, पेड़ों को कटने से बचाने के लिए उनसे लिपट जाती थीं, जमीनी स्तर पर पर्यावरण सक्रियता और स्थानीय समुदायों और उनके प्राकृतिक पर्यावरण के बीच गहरे संबंध का प्रतीक है
हिमालय दिवस: पर्यावरणीय चुनौतियां – Himalaya Day: Environmental Challenges
हिमालयी क्षेत्र कई पर्यावरणीय चुनौतियों का सामना कर रहा है, जो इसकी पारिस्थितिक अखंडता और इसके निवासियों की आजीविका के लिए खतरा पैदा कर रही हैं।
जलवायु परिवर्तन
- ग्लेशियरों का पीछे हटना: जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय में ग्लेशियरों का तेजी से पीछे हटना हो रहा है, जिससे पानी की उपलब्धता कम हो रही है और ग्लेशियल झीलों के फटने से बाढ़ (GLOF) का खतरा बढ़ रहा है। इसका निचले इलाकों में जल सुरक्षा और आपदा जोखिम पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।
- तापमान वृद्धि: बढ़ता तापमान हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र के नाजुक संतुलन को प्रभावित कर रहा है, जिससे वनस्पति पैटर्न में परिवर्तन, जैव विविधता की हानि, तथा कीटों और बीमारियों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ रही है।
वनों की कटाई और भूमि क्षरण
- असंवहनीय प्रथाएँ: वनों की कटाई, कटाई, कृषि और बुनियादी ढाँचे के विकास के कारण हिमालयी क्षेत्र में वनों की कटाई एक बड़ी चिंता का विषय है। वन क्षेत्र के खत्म होने से मिट्टी का कटाव, भूस्खलन और कार्बन अवशोषण में कमी आती है।
- मृदा अपरदन: हिमालय की खड़ी ढलानें और नाज़ुक मिट्टी अपरदन के लिए प्रवण हैं, जो वनों की कटाई और अस्थिर भूमि उपयोग प्रथाओं के कारण और भी बढ़ जाती है। मृदा अपरदन कृषि उत्पादकता को कम करता है और नदियों में तलछट जमा होने में योगदान देता है, जिससे जल की गुणवत्ता और जलीय पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होते हैं।
मानव-वन्यजीव संघर्ष
- आवास विखंडन: विकास परियोजनाओं और कृषि विस्तार के कारण आवासों के विखंडन से मानव-वन्यजीव संघर्ष में वृद्धि हो रही है। तेंदुए, हाथी और जंगली सूअर जैसे जानवर अक्सर भोजन की तलाश में मानव बस्तियों में प्रवेश करते हैं, जिससे फसलें नष्ट हो जाती हैं और पशुधन की हानि होती है।
- संरक्षण प्रयास: मानव-वन्यजीव संघर्ष को कम करने के प्रयासों में वन्यजीव गलियारों का निर्माण, समुदाय-आधारित संरक्षण कार्यक्रम और प्रभावित समुदायों के लिए मुआवजा योजनाएं शामिल हैं।
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